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नलविलासे
उन्मीलहलशतपत्रपत्रलाक्षि ! क्ष्मापालं नलमधिगम्य कामरूपम् । सप्रीतिस्मरतनुगोचराणि तूर्णं लोकानां सफलय नेत्रकौतुकानि ।। २२ ।। कपिञ्जला - (१) देवि! किं अज्ज वि विलंबीयदि ?
दमयन्ती - (स्मित्वा) (२) कपिञ्जले! जं तुमं भणसि तं करोमि । ( वरमालमादाय नलस्य कण्ठे विन्यस्यति )
सर्वे- (सहर्षमुच्चैःस्वरम्) अहो! सुवृत्तं सुवृत्तम्।
नलः- (सहर्षरोमाञ्चमात्मगतम्)
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अद्याभूद् भगवान् विरचिरुचितव्यासङ्गनिष्णातधीर्देवस्याद्य मनोभवस्य फलवान् कोदण्डयोग्यक्लमः । चन्द्रोद्यानवसन्तदक्षिणमरुन्माल्यादिकस्याभवत्
कामोत्सेधविधायिनोऽद्य सफलो भूगोलचारश्चिरात् ।। २३ ।।
कामदेव के शरीर को देखने की लोगों के नेत्रों की (जो) उत्कण्ठा (है, उसको) शीघ्र सफल ( पूरा) करो ।। २२ ।।
कपिञ्जला- देवि दमयन्ति ! अब क्यों विलम्ब कर रही हो?
दमयन्ती - (मुसकुरा करके) कपिञ्जले ! जो तुम कह रही हो वही करती हूँ ( वरमाला देकर नल के गले में पहना देती है) ।
सभी- (हर्ष के साथ उच्च स्वर से ) अहा, सुन्दर वृत्तान्त सम्पन्न हो गया । नल- (हर्ष से रोमाञ्चित होता हुआ मन ही मन ) -
आज भगवान् ब्रह्मा की बुद्धि उचित संयोग (मिलन) कराने में पूर्णता को प्राप्त हो गई । कामदेव का, धनुष धारण करने का उपयुक्त, श्रम (क्लान्ति) भी आज फलीभूत हो गया । तथा कामदेव के घर का निर्माण (काम को बढ़ाने का कार्य ) करने वाले चन्द्रमा, उद्यान, वसन्त ऋतु, दक्षिण दिशा से चलने वाली वायु, गजरादिकों का चिरकाल से इस लोक में भ्रमण करना भी आज सफल हो गया ।। २३ ।।
(१) देवि! किमद्यापि विलम्ब्यते ?
(२) कपिञ्जले ! यत् त्वं भणसि, तत् करोमि ।
टिप्पणी- उत्सेध: - 'उत्सेध काय उन्नतिः" इत्यमरः ।
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