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चतुर्थोऽङ्कः नल:- (सर्वाङ्गीणमालोक्यात्मगतम्)
नयननलिनपेयं श्वेतिमानं वहन्ती श्रियमिह वदनेन्दौ दन्तपत्रे विदन्ती। यदयमथ दधानः कालिमानं विधत्ते
कुटिलचिकुरभारस्तत् तु कौतूहलं नः।।२१।। दमयन्ती- (सप्रमोदमात्मगतम्) (१) हियय! मुंच कापेयं। भोदु दमयंतीयाए सहलं मणुयलोयावयरणं।
नल:- (सभयमात्मगतम्) कथमियं चिरयति? किं विस्मृतवती स्वयमारामदत्तं सङ्केतम्? उताहो स भगवान् विधिरकाण्डे निषधाधिपती कोपमुपगतवान्।
वसुदत्त:- (उच्चैःस्वरम्)
नल- (भली भाँति देख करके के अपने मन में)
यहाँ, कमल रूपी नेत्र से पीने योग्य श्वेतिमा (गौरेपन) को धारण करती हुई, चन्द्र रूपी मुखमण्डल पर एक विशेष प्रकार के कर्णाभूषण की शोभा को प्राप्त करती हुई तथा अत्यन्त काले धुंघराले केश समूह को धारण करने वाली यह दमयन्ती तो हमारी उत्कण्ठा को और भी बढ़ा रही है।।२१।।
दमयन्ती- (भयभीत की तरह अपने मन में) हृदय! वानर स्वभाव को छोड़ो! (जिससे) दमयन्ती का मनुष्य जाति में जन्म लेना सफल हो।
नल-(डरता हुआ सा मन ही मन) यह क्यों देर कर रही हैं? क्या स्वयं उद्यान में दी गई अपनी सहमति को भूल गई? अथवा वह भगवान् विधाता (ब्रह्मा) सहसा निषधाधिपति नल पर कुपित हो गये हैं।
वसुदत्त- (उच्च स्वर से)
हे, विकसित कमल दल के सदृश बरौनी (की समृद्धि से युक्त नेत्रों वाली, दमयन्ति! अपने मनोरथ के अनुरूप पृथ्वी-पालक नल को प्राप्त करके तुम प्रीति पूर्वक
(१) हृदय! मुञ्च कापेयम्। भवतु दमयन्त्याः सफलं मनुजलोकावतरणम्।
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