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नलविलासे
स्थिरं कृत्वा चेतः सुदति ! वृणु रामैकशरणं
तमेतं भूपालं य इह ननु नव्यः किल नलः । यदेतस्याक्रान्ताः क्षणमपि करेणाचलघने
वने मज्जन्त्याशु स्फुटकटकवन्तः क्षितिभृतः ।। २० ।।
अपना पति बनाओ। जिस नल की कीर्ति से एक ही क्षण में वशीभूत हो गये स्पष्ट दिखाई पड़ने वाले कङ्गन युक्त हाथ से राज समूह नल की कीर्ति रूपी अथाह जल में उसी प्रकार यथाशीघ्र गोता लगा रहे हैं जैसे पृथ्वी के घने जङ्गल में स्पष्ट दिखाई पड़ने वाले शिखरों से पर्वत ।। २० ।।
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टिप्पणी- भाव यह है कि नल के गुण-वर्णन को सुनकर राज समूह ने स्वीकारोक्ति में अपने हाथ को ऊपर उठा लिया। लोक में भी किसी बात की स्वीकारोक्ति हाथ को ऊपर करके की जाती है । कवि की कल्पना है कि राजसमूह अपने हाथ को ऊपर उठाकर नल की कीर्ति की गहराई नाप रहे हैं। जैसा कि लोक में भी जल की गहराई नापने का इच्छुक व्यक्ति अपने हाथ को ऊपर उठाकर जल में गोता लगाता है। अतः नल की कीर्ति रूपी जल की गहराई नापने वाले राजसमूह का हाथ कैसा लग रहा है ? तो कवि की कल्पना है कि जैसे घने वन के मध्य अर्थात् वन (जङ्गल) से ढके पर्वत की केवल शिखर श्रेणी ही स्पष्ट दिखाई देती है उसी प्रकार इस राज समूह का ऊपर उठा हुआ कङ्गन युक्त हाथ ही दिखाई दे रहा है ।
'नव्यः नल:'- यहाँ इसका भाव यह है कि एक तो विश्वकर्मा का पुत्र नल नामक प्रमुख वानर था जिसने नलसेतु नामक एक पत्थरों का पुल बनाया था, जिसके उपर से होकर सैन्य सहित मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने लंका में प्रवेश किया दूसरा, एक प्रकार का नरकुल अर्थात् घास विशेष जिसकी चटाई बनाई जाती है। उक्त दोनों से भिन्न कुबेर के पुत्र का भी नाम नल था, जो कुबड़ा (कुब्ज) था । किन्तु दमयन्ती - स्वयंवर में उपस्थित नल उक्त तीनों से भिन्न निषधदेश के राजा थे। इसीलिए कवि ने उक्त स्थल में निषधाधिपति नल को बोध कराने के लिए ही 'य इह ननु नव्यः किल नलः ' प्रयोग किया है।
'वने' – 'वनम्' का अर्थ जल और जङ्गल दोनों होता है । नल पक्ष में 'घने वने' का अभिप्राय नल की कीर्ति रूपी अथाह जल से है और पर्वत पक्ष में घने वने' का अभिप्राय सघन जङ्गल से है।
'पयः कीलालममृमतं जीवनं भुवनं वनम्' इत्यमरः । 'अटवी काटिकाऽरण्यं विपिनं काननं वनम्' इति वैजयन्ती ।
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