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चतुर्थोऽङ्कः प्रकर्षपदमन्तिमं दुहिणरूपशिल्पश्रियः स एष निषधापतिः सुभगकुञ्जरामणीः। विलोक्य किल यं जगन्नयनकैरवेन्दं चिरा
दमस्त परिकल्पिता मदनदाहवार्ता जनः।।१९।। दमयन्ती- (साश्चर्यमात्मगतम्) (१) अहो! मणोहरदा आगिदीए! अहह चंगिमा अंगसंनिवेसाणं! कटरि सूहवत्तणं! कटरि विलासवियड्डिमा!
राजा-(विलोक्य) कथमद्यापि वत्सा विलम्बते? (पुनरुच्चैःस्वरम्)
वत्से!
सृष्टि-कर्ता ब्रह्मारूपी वास्तुकार (कलाकार के रचना) की सौन्दर्य-श्रेष्ठता की अन्तिम सीमा सौभाग्यशालियों में अग्रगण्य, जगत् (लोक) के नेत्ररूपी कुमुदिनी को विकसित करने वाला चन्द्र स्वरूप जिस (नल) को देखकर निश्चय ही मनुष्य (चाहे पुरुष हो या स्त्री) चिरकाल से (जो शास्त्र-सम्मत नहीं है अर्थात्) लोकप्रसिद्ध कामपीड़ा रूपी गुप्त बात को (कामाग्नि के उद्दीप्त हो जाने से शारीरिक सन्ताप को) मानने (अनुभव करने) लगे हैं, ये वही निषधाधिपति नल हैं।।१९।।
दमयन्ती- (आश्चर्य के साथ अपने मन में) वाह, क्या रूप-सौन्दर्य है। अहाह, अङ्गों का उचित विन्यास हुआ है। प्रशंसनीय आनन्द का जनक है और केलि परक मनो-विनोद की निपुणता भी प्रशंसनीय है।
राजा- (देखकर) पुत्री दमयन्ती अब विलम्ब क्यों कर रही है? (पुन: उच्च स्वर से) पुत्रि!
हे सुदति (अपने) अभिरामतारसिक चित्त को स्थिर कर (चित्त को शान्त कर) के उस पृथ्वी पालक को, जो यहाँ निश्चय ही एक नवीन नल हैं, वरण करो अर्थात्
- (१) अहो! मनोहरताऽऽकृत्याः । अहह! चङ्गताऽङ्गसंनिवेशानाम्! कटरि सुभगत्वम्! कटरि विलासवैदग्ध्यम्!
टिप्पणी- 'द्रुहिण'- 'धाताब्जयौनिद्रणिहो विरश्च: कमलासनः। स्रष्टा प्रजापतिर्वेधा
विधाता विश्वसृड् विधिः।।' इत्यमरः । → संसारगति हन्ति द्रु हन् अच् इति 'द्रुहणः'। द्रुह्यति दुष्टेभ्यः- द्रुह् इनन्, णत्वम् इति 'द्रुहिणः ।
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