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नलविलासे दमयन्ती-(२) हीमाणहे! परिस्संतम्हि एदिणा सयंवरमंडवभूमिविहरणेण, किच्चिरं अज्ज वि अज्जो माधवसेणो जंपिस्सदि? वसुदत्त:- (राजानं प्रति) देव! पश्य
ताराविलासरुचिरं नयनाभिनन्दि नव्यं नरेन्द्रदुहितुर्मुखमिन्दुबिम्बम्। यस्याभिषणरहिताः कटकैः सहैव विच्छायतां क्षितिभृतः सहसा व्रजन्ति।।१८।।
(प्रविश्य सम्भ्रान्तः) पुरुषः- देव विदर्भाधिपते! लग्नघटिका वर्तत इति मौहूर्तिका विज्ञापयन्ति।
राजा- (ससम्भ्रमम्) अये माधवसेन! संवृणु वाचालतां विलम्बमसहिष्णुर्लनसमयः। कपिञ्जले! केयमरोचकिता वत्साया:?
माधवसेनः- (सभयमग्रतः परिक्रम्य) कुड्मलाप्रदति देवि!
दमयन्ती- ओह, इस स्वयंवर मण्डप की भूमि पर चलते-चलते थक गई हूँ। अत: आर्य माधवसेन अब और कितनी देर तक बोलते रहेंगे?
वसुदत्त- (राजा से) महाराज! देखिये- राजा की पुत्री दमयन्ती का मुख चन्द्रबिम्ब के समान है जो नेत्रकनीनिका के विलास से रुचिकर है (चन्द्रबिम्ब तारों के प्रकाश से रुचिकर है) नेत्रों को आनन्ददायी है, अभिनव है, जिस मुख के सम्पर्क से रहित होकर राजा विवर्ण होकर सेनाओं के साथ जा रहे हैं (लौट रहे हैं)।।१८।।
(प्रवेश करके घबराहट के साथ) पुरुष- हे विदर्भदेश के महाराज! विवाह का उचित समय (उपस्थित हो गया) है, ऐसा ज्योतिषशास्त्रज्ञ कह रहे हैं।
राजा-(घबराहट के साथ) अरे माधवसेन! बकवास (व्यर्थ की बात) बन्द करो, क्योंकि विवाह का उचित समय व्यतीत हो रहा है। कपिञ्जले! पुत्री दमयन्ती को यह अरुचि क्यों?
माधवसेन- (भयभीत की तरह, आगे चलकर) हे, अधखिले पुष्प के अग्रभाग के सदृश दाँतों को धारण करने वाली दमयन्ति, देवि!
(२) हा! परिश्रान्तास्मि एतेन स्यंवरमण्डपभूमिविहरणेन। कियच्चिरमद्याप्यायों माधवसेनो जल्पिष्यति?
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