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चतुर्थोऽङ्कः यात्रायां किल यस्य सिन्धुरघटाप्रायःप्रसर्पच्चमूमूर्छालावनिलोलमूलतरले चामीकरमाभृति। घूर्णन्तीषु विशृङ्खलं प्रतिकलं दोलासु दैत्यद्विषां
कन्याः कुञ्चितपाणयो विदधते प्रेखाविनोदोत्सवम्।।१६।। दमयन्ती-(१) अज्जमाधवसेण! णाहमारामभूरुहविहारकोदूहलिणी।
माधवसेनः- (स्वगतम्) अयमपि न मे मनः प्रीणयतीति निवेदितम्। भवतु। अप्रतः परिक्रमामि। (परिक्रम्य प्रकाशम्) पक्ष्मलाक्षि!
त्रैलोक्योदरवर्तिकीर्तिकदलीकाण्डप्रकाण्डप्रथापाथोदं दयितं विधेहि तममुं काञ्चीपतिं भूपतिम्। वाहिन्या प्रथितप्रतापधनया यस्मिन् समाक्रामति
क्लान्तः क्षोणिभृतः कुतो न निरगात् सझामगोरगः?।।१७।। जिसके सैनिक कार्य के लिए एकत्र हुई हाथियों की टोली रूपी सेना के मार्ग में प्रकृष्ट रूप से चलने के कारण चेतना रहित (हो गई) पृथ्वी सदैव बेचैन एवं कम्पमान (है ऐसी) स्वर्णमयी पृथ्वी के स्वामी( ये वही) मथुराधिपति विजयवर्मा हैं, जहाँ निर्बाध गति से इधर-उधर झूलती हुई झूलों में (क्रीड़ा के लिए) झुकी (आकर्षित) हुई देवबालायें भी नृत्य-क्रीड़ा की इच्छा रखती हैं।।१६।।
दमयन्ती- आर्य माधवसेन! उद्यान के वृक्षों में क्रीड़ा की इच्छा (उत्कण्ठा) मुझे नहीं है।
माधवसेन- (मन ही मन) इससे मेरा मन सन्तुष्ट (प्रसन्न) नहीं है ऐसा सूचित करती है। अच्छा, तो आगे बढ़ाता हूँ। (घूमकर प्रकट में) लम्बी और सुन्दर बरौनी (पिपनी, पपिनी) युक्त नेत्रों वाली दमयन्ति!
संग्राम में, (जिसके) प्रख्यात प्रताप रूपी विशाल सेना के आक्रमण से खिन्न राजाओं का संग्राम का अहङ्कार रूपी सर्प, क्या नहीं निकल जाता है? अर्थात् निश्चय ही निकल जाता है। ऐसे, तीनों लोक में विद्यमान यश से कदली (केले के) वृक्ष में यश रूपी (जल) को देने वाले प्रसिद्धि प्राप्त, इस काञ्ची देश के राजा को (तुम) अपना पति बनाओ।।१७।।
. (१) आर्य माधवसेन! नाहमारामभूरुहविहारकौतूहलिनी। टिप्पणी- ‘पक्ष्मल'- पक्ष्मन् + लच्। १. कप्राप्तः
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