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चतुर्थोऽङ्कः अकाण्डकोपिनो भर्तुरन्यासक्तेश्च योषितः। प्रसत्तिश्चेतसः कर्तुं ब्रह्मणापि न शक्यते।।७।।
(सर्वेऽग्रतः परिक्रामन्ति) काश्मीरेश्वर एष शेषवनितासङ्गीतकीर्तिर्द्विषत् - कान्तावक्त्रविचित्रपत्रमकरीहव्यैकधूमध्वजः । एतं कुन्ददति! त्वमावह वरं यद्यस्ति कौतूहलं
केदारेषु विकासिकुडुमरजःपिङ्गेषु सङ्क्रीडितुम्।।८।। दमयन्ती-(१) अज्ज माधवसेण! तुसारसंभारपणयभीरुयं मे सरीरयं न किं तुमं जाणासि?
माधवसेन:- तर्हि पुरो व्रजामि। (परिक्रम्य) कलहंगमने!
__ अकारण कुपित होने वाले स्वामी को तथा अन्य (पुरुष) में आसक्त स्त्री को प्रसन्नचित्त करने में तो स्वयं विधाता (ब्रह्मा) भी समर्थ नहीं हैं।।७।।
(सभी आगे चलते हैं) वनिताओं द्वारा गाई गई कीर्ति वाला, शत्रु की कान्ताओं के मुखों के विचित्र पत्ररचना रूप हव्य के लिए (समाप्त करने के लिए) अग्निस्वरूप यह कश्मीर देश का राजा है। कन्द पुष्प के समान धवल दाँतों वाली हे दमयन्ति! यदि तुम्हें फैले हुए केसर पराग के कारण पिङ्गलवर्ण वाले खेतों में क्रीडा करने का कुतूहल है तो तुम इस (राजा) को वरण करो।।८।।
दमयन्ती- आर्य माधवसेन! क्या तुम यह नहीं जानते हो कि मेरा शरीर ओस (हिमपात) के भार को सहन करने के योग्य नहीं है?
माधवसेन- तो आगे चलता हूँ। हे कलहंसगमने (दमयन्ति)!
पुष्ट स्कन्ध-प्रदेश वाला तथा अभिमानियों का एक मात्र आश्रयदाता इस कौशाम्बी-नरेश का वरण करो, जिसके प्रताप रूपी अग्नि को सहन करने में असमर्थ
(१) अर्य माधवसेन! तुषारसम्भारप्रणयभीरुकं मे शरीरं न किं त्वं जानासि?
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