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• नलविलासे दमयन्ती-(१) अज्ज ! परवंचणवसणिणो कासिवासिणो सुच्चंति। माधवसेनः- न मेऽस्मिन् मनोरतिरिति व्यक्तमुच्यताम्।
(परिक्रम्य) अयमवनिपतीन्दुभूपतिः कुङ्कणानां कलय वलयधाम्ना पाणिना पाणिमस्य। . अधिजलधिगतानां गोत्रशत्रुर्मंगाक्षि!
क्षपयति नहि पक्षान् क्ष्माभृतां शङ्कितोऽस्मात्।।६।। दमयन्ती-(२) अणिमित्तरोसिरो एस, ता न पारेमि पए पए अणुकूलिहूं।
माधवसेनः- कुन्ददति! वयसैव लघीयसी, संसारोपनिषद्वैदुष्येण गरीयसी खल्वसि।
दप्रयन्ती- आर्य माधवसेन! ऐसा सुना जाता ह कि काशी में रहने वाले दूसरे को ठगने में कुशल हैं। माधवसेन- यह मेरे मनोनुकूल भी नहीं है।
(घूमकर) हे मृगाक्षि! राजाओं में चन्द्रतुल्य ये वही कुङ्कणाधिपति हैं, जिसके भय से भयभीत, समुद्र में जाकर छिपे हुये पर्वतों का शत्रु, इन्द्र भी इसके आश्रित (पक्ष के) राजाओं का अपराध (खण्डन) नहीं करता है। अतः तुम अपने हाथ से इसके,हाथ में कङ्गन धारण करने के स्थान (कलाई) का ग्रहण करो अर्थात्, पति रूप में इसको वरण करो।।६।।
दमयन्ती- अकारण कुपित होने वाले इस राजा को पग-पग पर अनुकूल करना मेरे लिए सम्भव नहीं है।
माधवसेन- हे कन्ददति (कन्दपुष्प के समान दाँतो वाली दमयन्ति)! तुम आयु में ही छोटी हो, किन्तु संसार के रहस्य को जानने में बड़ी हो (क्योंकि
(१) आर्य! परवञ्चनव्यसनिनः काशिवासिनः श्रूयन्ते। (२) अनिमित्तरोषण एष, तन्न पारयामि पदे पदेऽनुकूलयितुम्।
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