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________________ चतुर्थोऽङ्कः १११ सान्निध्यात् पितुरानतं नृपजनव्यालोकलीलोन्नतं मद्वक्त्रेक्षणलालसात् प्रतिमुहुः कोणाङ्ककेलीचलम्। आरामस्मरणोद्गताद्धतरसं वेषौचितीदर्शन व्यग्रं नव्यसभाप्रवेशचकितं चक्षुः कुरङ्गीदृशः।।।।। राजा- अये माधवसेन! प्रत्येकमवनीभुजां नय-विनय-क्रमविक्रमानुत्कीर्तय पुरो वत्सायाः। माधवसेनः- (पुरो भूत्वा दमयन्ती प्रति) स्मेराक्षि! क्षितिचक्रविश्रुतबलः काशीक्षितीशो बलः सोऽयं स्कन्धतटेऽस्य मुञ्च विकचन्मल्लीप्रसूनस्रजम्। उच्छालस्पृहयालुशीकरभरव्यासङ्गरङ्गनगे गाङ्गे रोधसि सस्पृहा ग्लपयितुं चेद् ग्रीष्मध्यनन्दिनम्।।५।। पिता के समीप अपने मुख को नीचे की हुई, (किन्तु) राज-समूह को देखने के लिए लीलापूर्वक ऊपर उठाती हुई तथा प्रत्येकक्षण मेरे मुख को देखने की इच्छा से क्रीड़ा करती हुई तिरछे नेत्र-प्रान्तों वाली, उद्यान की कथा के स्मरण से उत्पन्न विस्मित (होती हुई) और वेषौचित्य को देखने में व्यस्त स्वयंवर सभा में आने से आश्चर्यचकित (इस दमयन्ती की) दृष्टि भयभीत हिरणी की दृष्टि की तरह है।।४।। राजा- हे माधवसेन! दमयन्ती के सामने प्रत्येक राजा की नीति, विनय और पराक्रम आदि का वर्णन करो। माधवसेन- (सम्मुख होकर दमयन्ती से) हे विकसित नेत्रों वाली दमयन्ति ! यदि ऊपर उठने के लिए लालायित जलकणों की राशि के सम्पर्क से डोलते हुए वृक्षो वाले गङ्गा के तट में गर्मी के दिनों को शान्त करना चाहती हो तो चमेली पुष्प-निर्मित वर माला को इसके गले में पहनाओ, (क्योंकि) ये वही 'बल' नामक काशी-नरेश हैं, जो भूमण्डल के समस्त राजाओं में अपने सामर्थ्य (शक्ति) के कारण प्रसिद्ध हैं।।५।। १. क. प्लव. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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