________________
११०
नलविलासे अलसचरणपातैर्वीक्षितैश्चातिकान्तैः
कथय कथमियं नः साम्प्रतं भात्यपूर्वा?।।३।। मकरिका-(विहस्य) (१) भट्टा ज्जेव संतावमुप्पाययंतो अपुरवत्तणे कारणं।
नल:- (सहर्षम्) अयि! रजनिवृत्तान्तमवधार्य वदसि? मकरिका-(२) अध इं। नल:- किमजनि रजनौ देव्याः? मकरिका-(३) जं रहंगघरिणीए।
नल:- कच्चिनिषधाधिपतिर्भगवता विरञ्चन सुभगश्रेणिं लम्भितः। (दमयन्तीं विलोक्य) मकरिके!
अत्यधिक पीताभ-श्वेत वर्ण के कपोलों को धारण करती हुई, अपने अंगों से स्वच्छ कोमल कमल-नाल को निर्जीत करती हुई चरण-विक्षेप से तथा अत्यधिक प्रिय दृष्टि से (युक्त) यह दमयन्ती इस समय हम लोगों को कितनी अपूर्व लग रही है, यह (तुम) कहो।।३।। __मकरिका- (हास पूर्वक) इसके अपूर्वत्व में सन्ताप को उत्पन्न करने वाले महाराज आप ही कारण हैं।
नल- (हर्षपूर्वक) मकरिके! क्या, रात्रि के वृत्तान्त के आधार पर तुम ऐसा कह रही हो?
मकरिका- और नहीं तो क्या। नल- तो, रात्रि में दमयन्ती को क्या हो गया? मकरिका- रात्रि में जो चकोर पक्षी की पत्नी चकोरी का होता है।
नल- शायद, भगवान् ब्रह्मा ने, नल को सज्जनों की श्रेणी प्राप्त कराया है। (दमयन्ती को देखकर) मकरिके!
(१) भव सन्तापमुत्पादयन् अपूर्वत्वे कारणम्। (२) अथ किम्। (३) यद् रथाङ्गगृहिण्याः ।
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org