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चतुर्थोऽङ्कः
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कपिञ्जला - (स्वगतम्) (१) अम्मो ! कथं भट्टिणीए नलं पिच्छिउण ऊरुत्थंभो जादो ? भोदु एवं दाव (प्रकाशम्) भट्टिणि रयणिसंभूददाहजरेण नीसहाई दे अंगाई, ता मं अवलंबिय परिक्कमसु ।
नलः - ( विलोक्य) मकरिके ! केयं कपिञ्जलादत्तहस्तावलम्बा परिक्रामति?
मकरिका - (२) णं एसा दमयंती ।
नल:
अहो ! कौतूहलं राजपथेऽपि भ्रमः । नन्वियं विष्टपदृष्टिचकोरीचन्द्रिका देवी दमयन्ती । मकरिके !
अधिकमधिवहन्ती गण्डयोः पाण्डिमानं तलिननलिननालान्यङ्गकैस्तर्जयन्ती ।
कपिञ्जला- (मन ही मन ) ओह, स्वामी नल को देखकर (दमयन्ती की) दोनों जाँघे क्यों शिथिल हो गयी ? अच्छा, तो, स्वामिनि ! रात्रिजन्य ज्वर - ताप से तुम्हारे अङ्ग असहाय हो गये हैं इसलिए मेरा अवलम्बन कर भ्रमण करें ।
नल- (देखकर) मकरिके ! कपिञ्जला का अवलम्बन कर भ्रमण करने वाली यह
कौन ?
मकरिका - यह तो दमयन्ती है।
राजा- ओह, उत्कण्ठा के कारण राजमार्ग में भी भ्रम हो जाता है । चकोरी पक्षिविशेष के नेत्रों को आनन्दित करने वाली चन्द्र-किरणों की तरह संसार रूपी नेत्र को आनन्दित करने वाली यह तो दमयन्ती देवी ही है। मकरिके !
(१) अहो ! कथं भर्त्या नलं दृष्ट्वा ऊरुस्तम्भो जात: ? भवतु, एवं तावत्। भर्त्रि! रजनीसम्भूतदाहज्वरेण निःसहानि ते अङ्गानि ततो मामवलम्ब्य परिक्रमस्व ।
,
(२) नन्वेषा दमयन्ती ।
टिप्पणी- 'चकोरी' - पक्षी विशेष या तीतर की जाति का पक्षी कहा जाता है कि चन्द्रकिरणें ही इस (पक्षी) का भोज्य पदार्थ है - 'ज्योत्स्नापान मदालसेन वपुषा मत्ताश्चकोरांगनाः।' विद्धशालभञ्जिका । 'विष्टप' - 'जगत् स्याद् विष्टपे' इति मेदिनी । टिप्पणी- "तलिनं विरले स्तोके स्वच्छेऽपि वाच्यलिङ्गकम्" इति मेदिनी
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