________________
नलविलासे
दमयन्ती - ( सरोषमिव ) (१) कीस तए अहं लहुईकदा?
माधवसेनः - इत इतो देवी । देवि! अयमेष देवो विदर्भाधिपतिः । एते च वरयितार: क्षमाभर्तारः ।
१०८
कपिञ्जला- (अपवार्य नलं दर्शयन्ती ) (२) एसो उण कुसुमावचयपच्चूहकारी दुव्विसह आधि-वाधिनाडयपत्थावणासुत्तहारो सजणो ।
दमयन्ती - ( समन्ततोऽवलोक्य, नलं च सविशेषं निर्वर्ण्य स्वगतम्) (३) कथं अहल्लेव गोदमस्स सावेण एदस्स दंसणेण जडीकदा मे ऊरुजुयली ? हीमाणहे! कथं सयंवरमंडवे परिक्कमिस्सं?
दमयन्ती - (कुपित हुई सी) तुम्हारे द्वारा मैं हल्की बना दी गई।
माधवसेन - इधर से देवी इधर से । देवि! ये महाराज विदर्भनरेश हैं। और ये सब वर रूप में आये राजसमूह हैं।
कपिञ्जला- (अपवारित करके नल को दिखाती हुई ) पुष्पचयन की क्रिया में विघ्न उपस्थित करने वाला असह्य शारीरिक पीड़ा रूपी नाटक के आमुख का सूत्रधार ये वही राजा नल हैं।
दमयन्ती - (चारों तरफ देखकर, तथा नल को अच्छी तरह देखकर अपने मन में) इस (नल) को देखने से गौतम के शाप से अहल्या की तरह मेरी दोनों जाँघे क्यों जडीभूत हो गयीं? ओह, अब मैं कैसे स्वयंवरमण्डप में भ्रमण करूंगी?
(१) कथं त्वयाऽहं लघुकीकता ?
(२) एष पुनः कुसुमावचयप्रत्यूहकारी दुर्विसहाधिव्याधिनाटकप्रस्तावनासूत्रधारः स्वजनः ।
(३) कथमहल्येव गौतमस्य शापेनैतस्य दर्शनेन जडीकृता मे ऊरुयुगली! हा ! कथं स्वयं वरमण्डपे परिक्रमिष्यामि ?
टिप्पणी- 'पत्थावणा' - प्रस्तावना प्र + स्तु + णिच् + युच् + टाप |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org