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चतुर्थोऽङ्कः
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मङ्गलक:- ( अग्रतः परिक्रम्य) देव विदर्भाधिपते! समायातो
निषधाधिपतिः ।
राजा - अवशिष्यते कोऽपि नरपति: ?
मङ्गलक :- न कोऽपि ।
राजा - कोऽत्र भोः ?
(प्रविश्य)
कचुकी- ऐषोऽस्मि ।
राजा - माधवसेन! वत्सां दमयन्तीं स्वयंवरमण्डपे समानय । ('आदेश: : प्रमाणम्' इत्यभिधाय माधवसेनो निष्क्रान्तः । ततः प्रविशति कञ्चुकिना निर्दिश्यमानमार्गा दमयन्ती, गृहीतवरमाला कपिञ्जला च)
कपिञ्जला - (१) तदो पुच्छिदा अहं रयणिवृत्तंतं मयरियाए, कहिदो
य मए ।
मङ्गलक- (आगे जाकर) हे विदर्भनरेश! निषधदेश के स्वामी राजा नल आ
गये हैं।
राजा- कोई राजा रह तो नहीं गया?
मङ्गलक- नहीं।
राजा- अरे, कौन है यहाँ ?
(प्रवेश करके)
कञ्चुकी- यह मैं हूँ।
राजा - माधवसेन ! पुत्री दमयन्ती को स्वयंवर मण्डप में लाओ।
('आदेश ही प्रमाण है' यह कहकर माधवसेन चला जाता है। पश्चात् कञ्चुकी से मार्ग दिखाई जाती हुई दमयन्ती और वरमाला को ग्रहण की हुई कपिञ्जला प्रवेश करती है।
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कपिञ्जला - इसके बाद मकरिका ने मुझसे रजनीवृत्तान्त पूछा और मैंने उसे बता दिया।
(१) ततः पृष्टाऽहं रजनीवृत्तान्तं मकरिकया, कथितश्च मया ।
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