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नलविलासे मकरिका-(१) अरे गद्दहमुहं! किं भट्टिणमवजाणासि? विदूषकः-(२) आरं दासीए धीए! मं बंभणमहिक्खिवसि? नल:- वयस्य! साम्प्रतमनवसरः क्रोधस्य। विदूषकः- (३) जइ अणवसरो कोहस्स, ता गिम्हिस्सं पसाद। नल:- रसभङ्गः कृतस्त्वया, ततो न वयं अवेयकं प्रतिपादयिष्यामः। मकरिका- (विहस्य) (४) ईदिसस्स ज्जेव संमाणस्स जुग्गो सि। विदूषकः-(५) भो! पडिवादेहि आभरणं, न पुणो रुसिस्सं।
__ (नलो ग्रैवेयकं समर्पयति)
मकरिका- अरे गर्दभमुख! क्या स्वामी की अवहेलना करते हो? विदूषक- अरी दासी-पुत्रि! मुझ ब्राह्मण पर आक्षेप करती हो? नल- मित्र! अभी क्रोधित होना अनुचित है।
विदषक- यदि क्रोधित होने का यह उचित समय नहीं है तो मैं तुम्हारे गले के हार रूपी प्रसाद को ग्रहण करूँगा।
नल- नहीं, तुमने आनन्द का उच्छेद कर डाला इसलिए मैं तुम्हें 'गले का हार' नही दूंगा।
मकरिका- (हास पूर्वक) इसी प्रकार के सम्मान के योग्य तुम हो भी। विदूषक- हे मित्र! मुझे आभूषण दो, मैं पुन: नहीं क्रोधित होऊँगा।
(नल गले का हार विदूषक को देता है)
(१) अरे! दर्दभमुख! किं भर्तारमवजाननासि? (२) आ: दास्याः पुत्रि! मां ब्राह्मणमधिक्षिपसि? (३) यद्यनवसरः क्रोधस्य, तद् ग्रहीष्ये प्रसादम्। (४) ईदृशस्यैव सम्मानस्य योग्योऽसि। (५) भोः प्रतिपादय आभरणम्, न पुन: रुषिष्यामि।
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