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________________ चतुर्थोऽङ्कः कलहंस- पत्रकश्लोकविमर्शनेन नाटकस्येव प्रमदाद्भुतरसशरणं सम्भावयामि निर्वहणम् । नलः - वयस्य खरमुख ! खरनादितेन राजपुत्रीं प्रतिनिवर्तयता त्वया वयमधमर्णीकृताः । जाने भगवता विरञ्चेन भवानेतदर्थमेव गर्दभवदनः कृतः । विदूषक:- ( सरोषम् ) (१) अदो ज्जेव तए कदन्नुचूडामणिना खर मुहस्स पडिकदं कदं । नल:- वयस्य! राजपुत्रीललितमीमांसादुर्ललितचेतोभिरस्माभिर्न किमपि रजनावनुस्मृतम्, तदिदानीं गृहाणेदं ग्रैवेयकम् । विदूषकः - (२) कुविदो म्हि, न गिम्हिस्सं । नल:- मकरिके ! वयस्यमनुकूलयास्मासु । कलहंस- पत्र- लिखित पद्य पर विचार करने से नाटक में प्रयुक्त अद्भुतरस से युक्त निर्वहण सन्धि की तरह इस स्वयंवर समाप्ति की भी सम्भावना करता हूँ। १०५ नल- मित्र खरमुख ! गर्दभध्वनि से राजपुत्री दमयन्ती को लौटाकर तुमने हमें अधमर्ण (कर्जदार) बना दिया। मैं तो यही मानता हूँ कि भगवान् ब्रह्मा ने इसीलिए तुम्हें गर्दभमुख वाला बनाया है। विदूषक - ( क्रोधित हुए की तरह) इसीलिए तो प्रत्युपकार करने वालों में अग्रगण्य तुमसे मैं उपकृत भी किया गया। नल- मित्र ! राजपुत्री दमयन्ती के सौन्दर्यादि का विचार करते हुए, जिसे प्रसन्न करना कठिन है ऐसे हृदयवाला, हमने रात्रि का तो कुछ स्मरण ही नहीं किया। अब यह गले का हार ग्रहण करो । विदूषक - नहीं लूँगा, क्योंकि अभी मैं क्रोधित हूँ। नल- मकरिके ! मित्र को हमारे ऊपर प्रसन्न करो ! (१) अत एव त्वया कृतज्ञचूडामणिना खरमुखस्य प्रतिकृतं कृतम् । (२) कुपितोऽस्मि, न ग्रहीष्यामि । टिप्पणी- ग्रैवेयकं कण्ठभूषा' - इत्यमर: 'ग्रैवेयकम्' Jain Education International ग्रीवा ढकञ् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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