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________________ १०४ नलविलासे आकुञ्चितैर्विकसितैश्चकितैः प्रहृष्टरुत्कण्ठितैः कुटिलितैर्ललितैर्विनीतैः । आलोकितैर्मृगदृशो वदनप्रवृत्ति वृत्तैर्जितोऽस्मि मुषितोऽस्मि हृतोऽस्मि तुल्यम् । । १ । । (प्रकाशम्) कलहंस! कृतमिषशतं यद् गच्छन्त्या मुहुर्मुहुरीक्षितं यदपि च सखीशङ्काभीत्या गता न विरागतः । तदिदमनिशं स्मारं स्मारं कुशीलववन्मनो हसति रमते रोदित्युच्चैर्विषीदति सीदति । । २ । । (विमृश्य) कीदृशमस्य स्वयंवरस्य निर्वहणं सम्भावयसि ? संकुचित, प्रफुल्लित, विस्मय, रोमाञ्च, उत्सुक, वक्र ( भाव-भङ्गिमा), शृङ्गारप्रिय (क्रीडासक्त) सौम्य व्यापार वाली मृग के समान दृष्टिवाली (दायन्ती) के अवलोकन-क्रिया से मैं जीत लिया गया, चुरा लिया गया (और) मुग्ध किया गया सा हो गया हूँ । । १ । । (प्रकट में) कलहंस ! यद्यपि ( वह दमयन्ती) सखियों की आशंका से भयभीत होकर चली गई (तथापि ) जाती हुई ( उस दमयन्ती द्वारा) किये गये सैकड़ों बहाने वाली बार-बार नेत्रावलोकन (की क्रिया) से ( स्पष्ट है कि वह अपनी ) इच्छा से नहीं ( गई ) । अतः उसको लगातार स्मरण कर मेरा मन नाटकीय पात्र की तरह हँसता है, रमण करता है, रोता है, अत्यधिक हताश होता है (और) दुःखी होता है । । २ । । (विचारकर) इस (दमयन्तीके) स्वयंवर समाप्ति की कैसी सम्भावना करते हो ? टिप्पणी- 'कुशीलव:'- कुत्सितं शीलमस्य- कुशीलव: । 'नटाश्चारणास्तु कुशीलवा: ' इत्यमरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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