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चतुर्थोऽङ्कः
१०३ वसुदत्तः- यदेव ज्ञानचक्षुषः समादिशन्ति तदेवास्तु। (विलोक्य) अयं स्वयंवरमण्डपः, इदं सिंहासनमास्यतां देवेन।
राजा-(तथा कृत्वा विलोक्य च) अमात्य! समायाताः काशीपतिप्रभृतयः क्षोणिपतयः, परमद्यापि निषधाधिपति याति। कोऽत्र भोः?
(प्रविश्य) पुरुषः- आदिशतु देवः।
राजा- अये मङ्गलक! कुसुमाकरोद्यानानिषधाधिपतिमाकार्य शचीपतिदिशि विनिवेशिते कार्तस्वरसिंहासने समुपवेशय।
('आदेश: प्रमाणम्' इति ब्रुवाणो मङ्गलको निष्क्रान्तः प्रविशति मङ्गलकेनादिश्यमानसरणिर्नल: कलहंस-खरमुख-मकरिकाऽऽदिकश्च
परिवार:) मङ्गलकः- इत इतो निषधाधिपतिः। इदं सिंहासनमास्यताम्। नल:- (समुपविश्य स्वगतम्)
वसुदत्त- यदि ज्ञान दृष्टि वाले ऋषिजन ऐसा कहते हैं तो वही हो। (देखकर) यह स्वयंवर मण्डप है, महाराज इस सिंहासन पर बैठे।
राजा- (वैसा करके और देखकर) मन्त्रिन् काशी-नरेश प्रभृति राजा आ चुके हैं, किन्तु निषधनरेश(नल) अभी भी नहीं आये हैं। अरे, यहाँ कोई है?
(प्रवेश कर) पुरुष- आज्ञा दें महाराज।
राजा- अरे मङ्गलक! पुष्पवाटिका से निषधनरेश नल को बुलाकर पूर्व दिशा में स्थापित स्वर्णसिंहासन पर उन्हें बैठाओ।
(महाराज की आज्ञा ही प्रमाण है' यह कहता हुआ मंगलक रङ्गमञ्च से चला जाता है। उसके बाद मंगलक से दिखाये जाते हुए रास्ते से कलहंस, खरमुख (विदूषक), मकरिका आदि परिजन सहित राजा नल प्रवेश करते हैं)
मङ्गलक- इधर से निषध-नरेश इधर से। इस सिंहासन पर बैठिए। नल- (सिंहासन पर बैठकर अपने मन में)
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