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________________ viii नलविलासे उक्त कार्य हेतु दूत बनने की प्रतिज्ञा करने पर देवों ने अपना परिचय दिया और कहा कि दमयन्ती से जाकर आप कहिए कि वह दमयन्ती हममें से किसी एक को अपने पति रूप में वरण कर ले। पश्चात् नल ने इन्द्र से यह वरदान प्राप्त कर कि- "आपको वहाँ प्रवेश करते समय कोई नहीं देख सकता' 'तथास्तु' कहकर देवों के वचन को स्वीकार करके दमयन्ती के प्रासाद में गया। वहाँ अन्त:पुर में अपने समक्ष उपस्थित नल को देखकर मन में विभिन्न प्रकार से विचार करती हुई दमयन्ती ने नल से पूछा- हे पापरहित! हे उत्तम शरीरवाले! हे मेरे काम को बढ़ाने वाले! यहाँ देवता के समान आप आये हैं, आप कौन है? यह मैं जानना चाहती हूँ। क्योंकि यहाँ आते हुए आप को किसी ने क्यों नहीं देखा?' दमयन्ती के वचन को सुनकर नल ने कहा- हे कल्याणि! मुझे नल समझो। मुझे देवताओं ने तुम्हारे पास भेजा है। वे देव तुम्हें प्राप्त करना चाहते हैं। अत: तुम इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम में से किसी एक देव का अपने पति रूप में वरण करो। उक्त वचन को सुनकर देवताओं को श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर दमयन्ती नल से कहने लगी कि-- हे राजन्! आप ही मुझसे विवाह कीजिए। हंसों ने आपके विषय में जो भी प्रशंसात्मक वचन कहे थे, वह मुझे जला रहे हैं। मैंने केवल आप ही को बुलाने की इच्छा से इन सब राजाओं को बुलाया है। यदि आपको भजने वाली मुझको ग्रहण करने से आप विरत होंगे, तो मैं आपके कारण, विष, अग्नि, जल अथवा रस्सी के प्रयोग से मर जाऊँगी। यह सुनकर नल ने कहा हे दमयन्ति! महात्मा ईश्वर लोकपालों की चरणधलि के समान भी मैं नहीं हूँ। अत: उन्हीं लोकपालों में तुम्हें अपने चित्त को लगाना चाहिए। क्योंकि देवताओं का अप्रिय करने वाला पुरुष नष्ट हो जाता है; अतएव तुम मेरी रक्षा करो, किसी देवता को ही पति चुन लो। यह सुनकर आंसुओं के कारण गद्गद हुई वाणी का उच्चारण करती हुई दमयन्ती नल से कहने लगी कि- हे नरनाथ! मैंने एक आपत्तिरहित उपाय सोचा है, मेरा जहाँ स्वयंवर हो वहाँ अग्नि आदि देवताओं के साथ आप भी जायें तब सब लोकपालों के आगे मैं आपको वरूँगी, ऐसा करने से आपको कुछ भी दोष नहीं होगा। यह सुनकर राजा नल पुनः देवताओं के पास गये और उन देवताओं को दमयन्ती के मनोगत अभिप्राय को कह सुनाया। और बोले कि हे देवो! अब आप लोगों की जो इच्छा हो, वह करें। १. महाभारत, वनपर्व ५५/१-२१।। २. महाभारत, वनपर्व ५५/२२-२५। ३. महाभारत, वनपर्व ५६/१-४। ४. महाभारत, वनपर्व ५६/५-३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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