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________________ तृतीयोऽङ्कः राजा कर्णेजपं क्षतमुदो विपदो वचस्त्वं श्वःसङ्गमः पुनरतिप्रलयस्य शङ्का। त्वद्विप्रयोगशरणं क्षणमप्यहं तु वर्षाणि देवि! किल यामि परःशतानि।।३०।। दमयन्ती-(१) अओ परं न पारेमि चिट्ठिदं, ता गमिस्सं (निष्क्रान्ता) (राजा पत्रकं वाचयति) सौदामिनीपरिष्वङ्गं मुञ्चन्त्यपि पयोमुचः। न तु सौदामिनी तेषामभिष्वङ्गं विमुञ्चति।।३१।। कलहंस:- देव! अनयाऽप्यात्मनोऽनन्यशरणत्वमावेदितम्। राज- नन्वयमुत्तरार्धस्यार्थः। कलहंसः- पूर्वार्धस्यार्थोऽनिष्टं सूचयति। तम्हारे वियोग में असहाय मैं तो एक क्षण एक वर्ष ( की तरह) व्यतीत करता हूँ (अतः) एक दिन तो (हमारे लिए) निश्चय ही सौ वर्ष (हो जायेगा)।।३०॥ दमयन्ती- किन्तु मैं और नहीं ठहर सकती, अत: जा रही हूँ (निकल जाती (राजा नल पत्र को पढ़ते हैं) मेघ (रूपी नायक) विद्युत् (रूपी अपनी नायिका) के विशिष्ट सानिध्य को छोड़ भी दे, किन्तु विद्युत् (रूपी नायिका) मेघ (रूपी अपने नायक) के विशिष्ट-सानिध्य को नहीं छोड़ती है।।३१।। कलहंस- महाराज! इसने तो अपने अपने अभीष्ट आश्रयदाता का स्पष्ट कथन कर ही दिया है। राजा- यह तो वाक्य के उत्तरार्ध का अर्थ है। कलहंस- पूर्वार्ध का अर्थ तो अनिष्ट का सूचक है। (१) अतः परं न पारयामि स्थातुम, ततो गमिष्यामि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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