________________
नलविलासे
(विदूषकः खरनादितं करोति )
दमयन्ती - ( आकर्ण्य ) (१) कथं एस रुक्खंतरिदो खरो वामं वाहरदि ? हला मयणिए! असउणं मे, ताव गच्छ तुमं, अहं पुण सहयारवीहीए गडुय आगमिस्सं ।
( मदनिका निष्क्रान्ता । दमयन्ती प्रतिनिवर्तते )
९८
विदूषकः - (२) भोदी ! न तए मे बंभणस्स सत्थिवायणं दिनं, तदो असउणं ।
दमयन्ती - ( पत्रके किमपि लिखित्वा) (३) एदं दे सत्थिवायणं (विदूषकस्य प्रयच्छति । राजानं प्रति) महाराय ! सुदे (सेवे?) पुणो वि संगमो ।
(विदूषक गर्दभ (निष्ठुर ) ध्वनि करता है)
दमयन्ती - (सुनकर ) मेरी बाँयी तरफ अत्यन्त निष्ठुर स्वर में यह गधा क्यों बोल रहा है ?
सखि मदनिके! मेरा अपशकुन हो गया, तब तक तुम जाओ, मैं पुनः आम्रवृक्षपंक्ति के समीप जाकर आ रही हूँ ।
( मदनिका चली जाती है और दमयन्ती लौट आती है)
विदूषक - आदरणीये! तुम्हारे द्वारा मेरे स्वस्ति वाचन की दक्षिणा नहीं दी गई इसलिए तुम्हारा अपशकुन हुआ।
दमयन्ती - ( पत्र में कुछ लिखकर ) यह है तुम्हारे स्वस्ति वाचन की दक्षिणा (विदूषक को देती है और राजा नल के प्रति ) महाराज ! कल पुनः हम दोनों का मिलन होगा ।
राजा - हे देवि ! रहस्यध्वनि की आशंका वाला तुम्हारे द्वारा कान में कहा गया 'पुनः कल मिलन होगा' वचन प्रसन्नता को समाप्त कर कष्ट देने वाला है, (क्योंकि)
(१) कथमेष वृक्षान्तरित: खरो वामं व्याहरति? हले मदनिके! अशकुनं मे, तावद् गच्छ त्वम्, अहं पुनः सहकारवीथ्यां गत्वाऽऽगमिष्यामि ।
(२) भवति! न त्वया मे ब्राह्मणस्य स्वस्तिवाचनं दत्तम्, ततोऽशकुनम् । (३) एतत् ते स्वस्तिवाचनम् । महाराज ! श्वः पुनरपि सङ्गमः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org