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तृतीयोऽङ्कः प्रेमावयोरनधिगम्यदशाधिरूढं जानीहि नैष सुकरो विधिनापि योगः।।२९।।
(प्रविश्य) चेटी-(१) भट्टिणि! देवी तुमं हक्कारेदि।
(राजा सभयं भुजमपनीय तिरोधत्ते) दमयन्ती-(२) अंबा मं आणवेदि? एसा समागच्छामि।
_(इति सर्वाः परिक्रामन्ति) राजा-(सविषादम्) कलहंस! न कोऽपि कार्यनियूंहः समभूत्। हा! हताः स्मः। कुतो नाम पुनरपि रहःसङ्गमः?
विदूषकः-(३) भो! अहं से संगमं पुणरवि करेमि।
राजा- (सादरम्) अस्मदनुरोधेन प्रवर्तस्व। का प्रेम (अपनी) चरमावस्था को प्राप्त हो गया है। (बस) यही जानो कि ऐसा संयोग कराना ब्रह्मा के लिए भी सरल नहीं है।।२९।।
(प्रवेश करके) चेटी- स्वामिनि! देवी माता जी बुला रही हैं।
(राजा भय के साथ हाथ छोड़कर छिप जाता है) दमयन्ती- माता जी मुझे बुला रही हैं? अभी आयी।
(यह कहकर सभी घूमती हैं) राजा- (खेद के साथ) कलहंस! कोई भी कार्य विघ्न रहित नहीं होता। ओहो, मैं मारा गया। एकान्त का यह मिलन अब कैसे सम्भव हो सकता है? विदूषक- हे राजन्! मैं तुम दोनों का पुन: मिलन कराता हूँ।
राजा- (आदरपूर्वक) तो हमारे अनुरोध से वैसा ही करो। (१) भत्रि! देवी त्वामाह्वयति। (२) अम्बा मामाज्ञापयति? एषा समागच्छामि। (३) भोः! अहमस्याः सङ्गमं पुनरपि करोमि (कारयामि)।
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