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नलविलासे अयं युक्तो व्यक्तं ननु सुखयितुं चातकशिशु___ एष ग्रीष्मेऽपि स्पृहयति न पाथस्त्वदपरात्।।२७।।
दमयन्ती- (विमृश्य स्वगतम्) त्वदेकशरणोऽहमित्युक्तं भवति। (प्रकाशम्) (१) कलहंस! मुद्धा खु अहं, न गूढभणिदीणमत्थं जाणामि। राजा- किमेवमभिदधासि? यतः
मुग्धाङ्गनानयनपातविलक्षणानि दक्षैरपि क्षणमलक्षितविभ्रमाणि। आलोकितान्यपि नताङ्गि! निवेदयन्ति
वैदग्ध्यसम्पदमनन्यतमां भवत्याः।।२८।। यदि वा व्यक्तमपि विज्ञप्यते।
कान्तस्तवाहमधरीकृतविश्वरूपः
सौन्दर्यविभ्रमवती भवती प्रिया मे। ठीक ही है, (क्योंकि) चातक पक्षी का जो बच्चा है (वह भी) इस गर्मी में अपने सुख के लिए दूसरे (अर्थात् स्वाति नक्षत्र के अतिरिक्त अन्य नक्षत्र) के जल की इच्छा नहीं करता है।। २७।।
दमयन्ती- (विचार कर मन ही मन) इसका अर्थ हुआ- तुम ही मेरी शरण हो। (प्रकट में) हे कलहंस! भोली-भाली मैं गूढ़वचनों के अर्थ को नहीं समझती हूँ।
राजा- ऐसा क्यों कह रही हो? क्योंकि
हे नताङ्गि! (यद्यपि) मुग्धाङ्गनाओं के नयन कटाक्ष का असाधारण विलास निपुण व्यक्ति से भी जानने योग्य नहीं है, (फिर भी) प्रेम के कारण उत्पन्न मन की अस्थिरता वाली (तुम्हारी) दृष्टि तुम्हारे अद्वितीय चातुर्य-समृद्धि को कह रहा है।।२८।।
अथवा स्पष्ट रूप से भी कहता हूँ।
अपने रूप-सौन्दर्य से भगवान् विष्णु को भी तिरस्कृत करने वाला मैं (नल) तुम्हारा प्रिय हूँ तथा सुन्दरता के विलास वाली तुम मेरी प्रिया हो। (और) हम दोनों
(१) कलहंस! मुग्धा खल्वहम्, न गूढभणितीनामर्थं जानामि।
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