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________________ तृतीयोऽङ्कः ( दमयन्ती सलज्जमधोमुखी भवति) यदि वा देवि! शान्तम् । सत्यमहमेवोपालभ्यो यो गुणमपि दोषमभिदधामि । कपिञ्जला - (१) भट्टिणि! कदं कालविलंबेण, रहस्सं किं पि मंतेहि । दमयन्ती - (२) नाहं रहस्सं मंतिदुं सिक्खिदा । राजा - अयि स्मरनागरिके! किमात्मानं वैदग्ध्यवन्ध्यमावेदयसि ? अपि चाहमस्मि शिक्षितः । कलहंस! दर्शय रहस्यमस्मदीयम् । ( कलहंसः पत्रमर्पयति । दमयन्ती वाचयति) अमीभिः संसिक्तैस्तव किमु फलं वारिदघटे ! यदेतेऽपेक्षन्ते सलिलमवटेभ्योऽपि तरवः । है फिर मुझे प्राप्त करके भी, (तुम्हारे) स्तनयुगल (अपनी ) कठोरता को नहीं छोड़ रहे हैं ।। २६ ।। करो । (दमयन्ती लज्जा के साथ मुख नीचे कर लेती है) अथवा हे देवि ! धैर्य धारण करो । गुण में भी दोष को कहने वाला मैं ही निश्चितरूप से उलाहना का पात्र हूँ। कपिञ्जला- स्वामिनि ! समय व्यतीत क्यों कर रही हैं, कुछ प्रच्छन्न बात भी दमयन्ती - प्रच्छन्न बात करने में मैं ९५ पटु Jain Education International नहीं हूँ । राजा - हे मदननगरि ! क्या स्वयं को चतुराई को नहीं जानने वाली कह रही है ? तो मैं दक्ष हूँ । कलहंस ! हमारी गुप्त (वस्तु दमयन्ती) को दिखाओ । ( कलहंस दमयन्ती को राजा नल का पत्र देता है । दमयन्ती पढ़ती है ) हे मेघ ! इस प्रकार से किये गये अच्छी सिंचाई से भी जब वृक्ष आलवाल से ( पानी प्राप्त करने की ) अपेक्षा रखते हैं, तो तुम्हारी क्या आवश्यकता ? वस्तुत: यह (१) भर्त्रि ! कृतं कालविलम्बेन, रहस्यं किमपि मन्त्रयस्व । (२) नाहं रहस्यं मन्त्रयितुं शिक्षिता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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