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नलविलासे दमयन्ती- (स्वगतम्) (१) हीमाणहे! अप्पाणंमि वि आदिघेईकदे उवालंभो न मुंचदि।
कपिञ्जला- (सभयमात्मगतम्) (२) किं मए किमवि अवरद्धं? राजा- ननु ब्रवीमि, उपालभ्यसेऽभ्यन्तरपरिजनापराधेन। दमयन्ती-(३) कहं विय। राजा
वक्रेन्दुः स्मितमातनोदधिगते दृष्टी विकासश्रियं बाहू कण्टककोरकाण्यविभृतं प्राप्ता गिरो गौरवम्। किं नाङ्गानि तवातिथेयमसृजन् स्वस्वापतेयोचितं सम्प्राप्ते मयि नैतदुज्झति कुचद्वन्द्वं पुनः स्तब्धताम्।।२६।।
के वाटिकारूपी यौवन में हर किसी की सभी क्रियायें कामदेव के अधीन होती हैं। (अच्छी तरह देखकर) हे कुन्ददति! कपिञ्जला थोड़ा सा उलाहना (मजाक कर) दे रही है।
दमयन्ती- (मन ही मन) आश्चर्य है, नवागन्तुक सत्कार करने के लिए आत्मीय जन भी उलाहना दे (मजाक कर) देती है।
कपिञ्जला- (भयभीत सी हुई अपने मन में) तो मुझसे कोई अपराध हो गया?
राजा- मैं कहता हूँ, सदा साथ रहने वाले अपने शरीर के अङ्गों के अपराध के कारण ही कपिञ्जला तुम्हें उलाहना दे रही है।
दमयन्ती- यह कैसे?
राजा- (हे देवि!) तुम्हारे चन्द्रमारूपी मुख ने स्मितहास को प्रप्त करके, नेत्रों ने विकसित कमल की शोभा को ग्रहण करके,दोनों भुजलताओं ने वलियों की तरह रोमाञ्च को धारण करके तथा वाणी ने गम्भीरता को प्राप्त करके तुम्हारे अङ्गों ने अपनेअपने वैभव के अनुरूप (मेरा) आतिथ्य सत्कार नहीं किया क्या? अर्थात् किया ही
(१) अहो! आत्मन्यपि आतिथेयीकृते उपालम्भो न मुच्यते।
(२) किं मया किमप्यपराद्धम्? (३) कथमिव? टिप्पणी- द्रव्यं वित्तं स्वापतेयं रिक्थमृक्थं धनं वसु-इत्यमरः ।
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