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________________ तृतीयोऽङ्कः ९३ राजा- अयि कातरकुरङ्गनेत्रे! कोऽयं वाङ्-मनसयोर्विवादः। ननु यथामनसमेवाभिधीयतामार्यपुत्रेति। अपि च शतपत्रपपत्रतरलाक्षि! यदि पतङ्गतापाबाधासाध्वसेन पाणिग्रहणाद् विरमामि, तदानीमनङ्गतापो मां बाधते। किञ्च चित्रं त्रस्तैणशावाक्षि! त्वत्पाणिग्रहणोत्सवः। सन्तापस्य निहन्ता नः प्रतापस्य तु कारणम्।।२५।। कपिञ्जला-(१) भट्टिणि! लज्जमुज्झिय पयडाणुरायं किपिअणुचिट्ठ। दमयन्ती- (सरोषमिव) (२) हंजे! तुमं पि कन्नगाजणविरुद्ध कम्मे मं निजोजयसि? राजा- अयि चन्द्रमुखि! न त्वां कपिञ्जला योजयति। किन्तु कृतमानिनीमानभङ्गः स भगवाननङ्गः। अनङ्गाधीनो हि कुसुमाकरोद्याने सर्वस्य सर्वो व्यापारः। (सर्वाङ्गीणमवलोक्य) कुन्ददतिः किश्चिदुपालभ्यसे। राजा- भयभीत मृग-नेत्र सदृश नेत्रों वाली हे दमयन्ति! मन और वाणी में परस्पर विरोध क्यों? निस्सन्देह मन की ही बात अर्थात् आर्यपुत्र ही कहिये। और भी, हे कमलपत्र सदृश चञ्चल नयने! यदि मैं सूर्य की गर्मीरूपी अप्रिय पीड़ा के कारण पाणिग्रहण से विरत हो जाऊँ तब काम-पीड़ा मुझे कष्ट देगी। और भी भयभीत मृग-शिशु सदृश नेत्रों वाली हे दमयन्ति! क्या अद्भुत बात है कि हमारी पीड़ा को समाप्त करने वाला एकमात्र कारण तुम्हारे पाणिग्रहण (से उत्पन) आनन्द ही है।।२५।। कपिला- स्वामिनि! लज्जा को छोड़कर अनुराग (स्नेह) को प्रकट क्यों नहीं कर रही हैं? दमयन्ती- (क्रोधित हुई सी) तो तुम भी कन्याजन के आचरण के विपरीत कर्म में मुझे लगा रही हो? राजा- हे चन्द्रमुखि! तुम्हें कपिञ्जला नहीं, अपितु मानिनी के मान को खण्डित करने वाला वह भगवान् कामदेव इस कर्म में लगा रहा है, क्योंकि कामदेव (१) भत्रि! लज्जामुज्झित्वा प्रकटानुरागं किमपि अनुतिष्ठ। (२) हङ्गे! त्वमपि कन्यकाजनविरुद्ध कर्मणि मां नियोजयसि? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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