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________________ नलविलासे राजा- (विलोक्य) इमौ प्रेक्षे कर्णौ वदनमिदमिन्दुः स्फुटकलः कलः सोऽयं नादस्तरुणकलकण्ठीकलकलः। इयं मल्लीवल्लीपुलकमुकुलाङ्का भुजलता वसन्तश्रीः साक्षात् त्वमसि मदिराक्षि! ध्रुवमतः।।२३।। (सहर्ष च-) चन्द्रोद्यानसरांसि सुन्दरि! मनः कर्षन्ति तावद् गुणैर्यावन्नेत्रदले तवास्यकमले दृष्टिर्न विश्राम्यति। तावत् कोऽपि कलालवो विजयते खद्योतपोतत्विषां यावन्नात्मकरैर्धिनोति धरणिं देवः सुधादीधितिः।।२४।। दमयन्ती-(१) अज्जउत्त! (पुन: सलज्जम्) महाराय! अधवा इदि देआंगे पतंगतावो, ता विरम पाणिग्गहणादो। राजा- (देखकर) हिलते हुए दोनों कानों वाली, व्यक्त कलाओं वाले चन्द्रमा के समान मुख वाली, युवामयूर सदृश मृदुवाणी वाली तथा मल्लिका लता के खिले हुए पुष्पों सदृश बाहुपाश वाली हे मदिराक्षि! तुम मूर्तरूप में वसन्तरूपी लक्ष्मी हो।।२३।। (हर्ष के साथ और) . हे सुन्दरि! चन्द्रमा, पुष्पवाटिका और सरोवर ये गुणों के द्वारा तब तक मन को आकृष्ट करते हैं जब तक तुम्हारे नयन-कटाक्ष और मुखकमल पर मेरी दृष्टि रुक नहीं जाती है, (अत:) खद्योत (जुगनू) शावकों की प्रकाश कला का अंश तभी तक शोभित होता है जबतक अमृत बरसाने वाले चन्द्रदेव अपनी किरणों का विस्तार पृथ्वी पर नहीं करते हैं।। २४।। दमयन्ती- आर्यपुत्र ! (पुन: लज्जा के साथ) महाराज! अथवा देव के शरीर को सूर्य की तप्त किरणे तपा रही हैं अतः पाणिग्रहण से विरत हो। (१) आर्यपुत्र! महाराज! अथवा एति देवाङ्गे पतङ्गतापः, तद् विरम पाणिग्रहणात्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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