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नलविलासे
दमयन्ती - ( सरोषमिव ) (१) हंजे! उवहसेसि मं, ता उवचिणिस्सं, न
चिट्ठिस्सं ।
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(राजा भुजलतामालम्ब्य 'अलमलम्' इत्यादि पठति ) दूरादागतस्य प्रणयिनो जनस्याभ्यर्थनां
कलहंसः - देवि! नावज्ञातुमर्हसि ।
दमयन्ती - (२) कथं कलहंसो ! कलहंस! मोयावेहि मे पाणिं । कलहंसः - देवि! कलहंसः पाणेर्ब्राहयिता, न पुनर्मोचयिता । दमयन्ती - (३) हीमाणहे! न को वि मह पक्खपायं करेदि । राजा - शान्तं शान्तम् । हे मृगाक्षि! नन्वयमस्मि तव पक्षपाती । समादिश कृत्यम् ।
दमयन्ती - (४) जइ एवं ता मुंच मे पाणिं ।
दमयन्ती - ( क्रोधित हुए की तरह) सखि ! मेरा उपहास कर रही हो, तब मैं पुष्पों का ही चयन करूँगी, यहाँ नहीं ठहरूंगी।
(राजा बाहुपाश से आलिङ्गन कर 'अलमलम्' इत्यादि वाक्य पुनः पढ़ता है) कलहंस- हे देवि ! दूर देश से आये हुए प्रियजन की प्रार्थना की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।
दमयन्ती - हे कलहंस ! यह क्या? कलहंस ! मेरा हाथ छुड़ाओ ।
कलहंस- देवि! कलहंस तो पाणिग्रहण कराने वाला है न कि छुड़ाने वाला । दमयन्ती- आश्चर्य है, कोई भी मेरा पक्षधर नहीं है।
राजा - शान्त हो शान्त हो । हे मृगलोचने! मैं तुम्हारा पक्षधर हूँ। आदेश दें क्या करना है।
दमयन्ती - यदि ऐसी बात है तो मेरे हाथ को छोड़ दो।
. (१) हले! उपहससि माम्, तद् उपचेष्यामि, न स्थास्यामि । (२) कथं कलहंस ! कलहंस ! मोचय मे पाणिम् ।
(३) अहो! न कोऽपि मम पक्षपातं करोति ।
(४) यद्येवं तदा मुञ्च मे पाणिम् ।
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