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तृतीयोऽङ्कः
८७ अन्नं च असरिससिणेहं जणं सयमणुसरंती कविंजलाए वि लज्जेमि।
मकरिका-(सरोषम्) (१) सहयारवीहियं पि अणुसरंती सरिससिणेहा, महाराओ उण विदग्मेसु वि समागदो असरिससिणेहो?
दमयन्ती-(२) मयरिए! नपारेमि तए सह जंपि, ता मयणपूयानिमित्तं कुसुमाइं उवचिणिस्सं।
___ (इति सर्वा:परिक्रामन्ति) राजा- कथमितोऽभिवर्तते देवी?
दृष्टे! द्रष्टुमितः स्पृहां कुरु पुरः पुत्री विदर्भेशितुनत्वागच्छति बिभ्रती स्मरकरिक्रीडावनं यौवनम्।
___ और दूसरे यह कि, अपरिचित प्रेमी जन का अनुगमन करती हुई मैं कपिञ्जला से लजाती भी हूँ।
मकरिका- (क्रोध के साथ) प्रेमपूर्वक आम्रवृक्ष के मार्ग का अनुगमन करती हुई तुम, फिर अतुलनीयस्नेह वाले महाराज नल भी तो विदर्भदेश में आये हैं।
दमयन्ती- मकरिके! तुम्हारे साथ बात करने में मैं तुम्हारा पार नहीं पा सकती। अत: कामदेव पूजा के लिए मैं फूलों का चयन करती हूँ।
___(यह कहकर सभी घूमती हैं) राजा- तो क्या देवी दमयन्ती इधर ही आ रही है?
(मेरे द्वारा) देख ली गई (हे दमयन्ति)! इधर देखने की स्पृहा करो, क्योंकि जिसके चन्द्रमारूपी मुख की विलासश्री को श्रद्धा के साथ देखने के लिए ही पौलोमीपति इन्द्र ने अपलक सहस्रनेत्रों को धारण किया है (ऐसी) कामरूपी हाथी के क्रीड़ा-वनवाले
(१) सहकारवीथिकामप्यनुसरन्ती सदृशम्नेहा, महाराजः पुनर्विदर्भेष्वपि समागतोऽसदृशस्नेहः!
(२) मकरिके! न पारयामि त्वया सह जल्पितम्। ततो मदनपूजानिमित्तं कुसुमान्युपचेष्ये।
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