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नलविलासे
दमयन्ती - (१) मयरिए! अहं कया वि किं अप्पसन्ना, जं एवं
मंतेसि?
८६.
मकरिका - (२) कहं नाम न अप्पसन्ना, जं हिदयवल्लहं जणं पिच्छिय दूरं चिट्ठसि ?
दमयन्ती - (३) मयरिए ! नाहमिदिसं कन्नाजणस्स अणुचिदं अणुट्ठिदु साहसिणी । किं च
आलाव- हास-परिरंभणाई पेमस्स परियरो एसो । पेमं उण नयणतिभागभूरिपरिघोलिरा दिट्ठी । । २१ ।।
दमयन्ती - मकरिकें! क्या मैं कभी अप्रसन्न होती हूँ? जो ऐसा कह रही हो । मकरिका- क्या आप अप्रसन्न नहीं है? क्योंकि अपने हृदयवल्लभ को देखकर भी आप उनसे दूर स्थित हैं।
दमयन्ती - मकरिके ! मैं कन्या के आचरण के विपरीत आचरण करने का साहस नहीं कर सकती।
और भी
बातचीत, हँसी-मजाक और आलिङ्गन ये सब प्रेम की सामग्री है, परन्तु नेत्र कटाक्ष से युक्त बार-बार घूमने वाली आँख से देखना ( ही वास्तव में ) प्रेम है । । २१ ।।
(१) मकरिके ! अहं कदापि किमप्रसन्ना, यदेवं मन्त्रयसे ?
(२) कथं नाम नाप्रसन्ना, यद् हृदयवल्लभं जनं दृष्ट्वा दूरं तिष्ठसि ? (३) मकरिके! नाहमीदृशं कन्याजनस्यानुचितमनुष्ठातुं साहसिनी । किञ्च
आलाप-हास-परिरम्भणानि प्रेम्णः परिकर एषः ।
प्रेम पुनर्नयनत्रिभागभूरिपरिघूर्णमाना दृष्टिः । ।
अन्यच्च, असदृशस्रेहं जनं स्वयमनुसरन्ती कपिञ्जलाया अपि लज्जे ।
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