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________________ तृतीयोऽङ्कः द्रुमालोकव्याजाद् विषमपरिपाता मम वपुः समं सेयं दृष्टिर्जडयति च संरम्भयति च ।। १८ ।। (विमृश्य) कुचकलशयोर्वृत्तं नृत्तं ध्रुवोर्मृदुता गिरां दृशि तरलता वक्रे कान्तिस्तनौ तनिमा तथा । तदिदमखिलं वेषश्वेतस्यहं यदि वल्लभो ध्रुवमपरथा दोषः स्वार्थं जनो बहु मन्यते । । १९ ।। कलहंसः - परमार्थोऽयम् मांसदृशो गुण-दोषौ ब्रुवते स्वार्थास्तिभङ्गसापेक्षाः । ज्ञानदृशस्तु यथास्थितपदार्थवृत्तान्तमनुरुध्य ।। २० ।। मकरिका - (१) भट्टिणि ! पसन्ना होहि । परिसर के अग्रभाग में बहुत अधिक घूमने के कारण कालिमा से युक्त (नेत्रों वाली) वह दमयन्ती वृक्ष देखने के बहाने (समझने में) दुष्कर (अपनी) दृष्टि डालती हुई मेरे शरीर को एक साथ चेतनारहित और वेग से युक्त कर रही है ।। १८ ।। (विचारकर) ८५ (इस दमयन्ती के) कलशतुल्य स्तनों की वर्तुलाकारता, भौहों का नर्तन, वाणी की मृदुलता नेत्रों में चञ्जलता, मुख में कान्ति, अङ्ग की कृशता ये सभी शोभाकर तभी हैं जब मैं उसके चित्त में वल्लभ बना हूँ अन्यथा ये सभी दोष हैं। मनुष्य स्वार्थ को ही आदर देता है। । १९ ॥ कलहंस- यह वास्तविक है अपने स्वार्थ की अपेक्षा मेरे जैसा जन गुण और दोष को स्वार्थानुसार पृथक् करके कहता है, किन्तु ज्ञानीजन तो पदार्थ (वस्तु) के वास्तविक स्वरूप का अनुरोध करके कहते हैं ।। २० ॥ मकरिका - स्वामिनि ! प्रसन्न हों। (१) भर्त्रि ! प्रसन्ना भव । टिप्पणी- वृत्तोऽधीतेऽप्यतीतेऽपि वर्तुलेऽपि मृते वृत्ते — इति मेदिनी । वेष- आकल्पवेषौ नेपथ्ये प्रतिकर्म प्रसाधनम्-इत्यमरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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