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________________ तृतीयोऽङ्कः कपिञ्जला-(१) भट्टिणि! मा उत्तम, आराम परिमलणसंकाए न को वि मज्झे पइट्ठो। किं न पिक्खदि देवी आरामपरिसरेसु समावासिदं सिन्नं? अवि य सहयारवीहियाए माणुसाई पि दीसंति। राजा- कथमस्मान् कपिञ्जला दर्शयति! अहह सञ्चबाणबाणः कटाक्षविक्षेपः! भयतरलकुरङ्गीनेत्रसब्रह्मचारी विकचकुवलयश्रीरेष दृष्टेर्विलासः। परिणतपरिबोधोद्बोधधाम्नां मुनीना मपि मनसि विकारोवारमाविष्करोति।।१६।। कपिञ्जला- (२) भट्टिणि! जाव को वि कुदो वि समागच्छदि, दाव मयणस्स पूयं निवत्तेहि। कोसलिए! उवणेहि भट्टिणीपूवगरणं। कपिञ्जला- स्वामिनि! बिह्वल न हों। उद्यान के नष्ट हो जाने के भय से ही कोई उद्यान के मध्य में नहीं है। क्या देवी नहीं देख रही हैं कि उद्यान के परिसर में सैनिकों का निवास है। यही नहीं आम्रवृक्ष की गली में मनुष्य भी दिखाई दे रहे हैं। राजा- तो क्या कपिञ्जला (दमयन्ती) को हमें दिखा रही है? ओह, कामदेव के बाण सदृश कटाक्ष-विक्षेप! भय से चञ्चल हरिणी के नेत्र सदृश, खिले हुए नील कमल की कान्ति वाला इस (दमयन्ती) के नेत्रों का हाव-भाव तत्त्व का चिन्तन करने से परिपक्व बद्धिवाले समाधिस्थित मुनिजनों के मन में भी (कामजन्य) अनुराग को प्रवाहित कर रहा है।।१६।। कपिञ्जला-स्वामिनि! जब तक कोई कहीं से आ नहीं जाता है तब तक आप कामदेव की पूजा से निवृत्त हो जाँय। कौशलिके! स्वामिनी के लिए पूजा सामग्री को लाओ। (१) भत्रि! मा उत्ताम्य, आरामपरिमर्दनशङ्कया न कोऽपि मध्ये प्रविष्टः। किं न प्रेक्षते देवी आरामपरिसरेषु समावासितं सैन्यम्? अपि च सहकारवीथिकायां मनुष्या अपि दृश्यन्ते। __(२) भत्रि! यावत् कोऽपि समागच्छति, तावत् मदनस्य पूजां निवर्तय। कौशलिके! उपनय भर्तीपूजोपकरणम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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