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नलविलासे
विदूषकः - (१) भो! जधा एसा पुणो पुणो इदो दिट्ठि पट्ठवेदि, तथा जाणे मं नवजुव्वणं बंभणं निरूवेदि ।
मकरिका - (अपवार्य) (२) पडिहदो सि ।
राजा - सहकारतिरोहितास्तिष्ठामो येनेयं स्वैरं विहरति, वदति, विलोकयति च ।
( सर्वे तथा कुर्वन्ति । ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टा दमयन्ती)
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दमयन्ती - (३) सहि कविंजले! कुसुमायरे निसिढावणो आवासं जाणिय कामयाववएसेण अहं दाव इह समागदा। गवेसिदो य मए तरुनिरुवणासेण सयलो वि आरामो। परं न को वि कहिं पि दिट्ठो । ता किं नेदं, किं न किं पि मयरियामंतसरिसं भविस्सदि ?
विदूषक - अरे जिस प्रकार से वह अपनी दृष्टि से बार-बार इधर देखती है, उससे तो यही लगता है कि नवीन युवावस्था से सम्पन्न मुझ ब्राह्मण को ही अच्छी तरह से देख रही है।
मकरिका - (अपवारित करके) तुम ठगे गये।
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राजा - तो हम लोग इस आम्रवृक्ष की आड़ में ठहरें जिससे दमयन्ती अपनी इच्छानुसार विचरण करे, बोले और देखे ।
(सभी वैसा ही करते हैं। पश्चात् यथानिर्दिष्ट दमयन्ती प्रवेश करती है)
दमयन्ती - सखि कपिञ्जले ! पुष्प उद्यान में निषधपति नल का निवास है ऐसा जानकर मैं कामदेव पूजा के बहाने यहाँ आयी। मैंने वृक्षों को देखने के बहाने सम्पूर्ण उद्यान को देखा, परन्तु कोई भी कहीं नहीं है। तो क्या जैसा कि मकरिका ने कहा था वैसा नहीं होगा।
(१) भोः । यथैषा पुनः पुनरितो दृष्टि प्रस्थापयति, तथा जाने मां नवयौवनं ब्राह्मणं निरूपयते ।
(२) प्रतिहतोऽसि ।
(३) सखि कपिञ्जले! कुसुमाकरे निषधपतेरावासं ज्ञात्वा कामपूजाव्यपदेशेनाहं तावदिह समागता । गवेषितश्च मया तरुनिरूपणामिषेण सकलोऽप्यारामः, परं न कोऽपि क्वापि दृष्टः । तत् किं न्वेतत् किं न किमपि मकरिकामन्त्रसदृशं भविष्यति ?
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