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नलविलासे विटचेष्टया यया किल कुलसुदृशो दृष्टयापि लज्जन्ते।
सैव च यासां देश्या' वेश्यास्ताः किं कृती स्पृहयेत्?।।१५।। राजा- कलहंस! निरूपय, किमस्ति काऽप्यस्मिन् पण्याङ्गनारङ्गे विदर्भदुहितुः सखी वा चेटी वा?
कलहंसः- यदादिशति देवः। (इति परिक्रामति)
विदूषकः- (१) भो! न गंतव्वं, अच्छरापेडयं खु एदं, न माणुसीपेडयं।
राजा- (सरोषम्) खरमुखवचनमपि भवान् कर्णे करोति! अनर्गलवदनोऽयं ब्राह्मणः, तद् गम्यताम्।
विदूषकः- (२) जय (इ) वि अहं अणग्गलवयणो बंभणो, तहावि एदस्स कलहंसस्स एगागिणो परमहिलाणं मज्झे गमणं न समुचिदं। ता एसा मयरिया गच्छदु।
राजा- हे कलहंस! अच्छी तरह से देखो कि पण्याङ्गनाओं से युक्त रङ्गमञ्च पर विदर्भनरेश की पुत्री दमयन्ती अथवा उसकी सहेली अथवा उसकी दासी में से कोई है या नहीं?
कलहंस- महाराज की जैसी आज्ञा। (यह कहकर घूमता है)
विषक- अरे कलहंस! वहाँ मत जाओ, निश्चय ही वहाँ अप्सराओं का समूह है, न कि मानुषी स्त्रियों का समूह।
राजा- (क्रोधपूर्वक) आप खरमुख के वचन पर भी ध्यान देते हैं। यह ब्राह्मण अनापसनाप बकने वाला है, इसलिए आप जाँय।
विदूषक- यद्यपि मैं अनापसनाप बकने वाला ब्राह्मण हूँ तथापि दूसरी महिलाओं के मध्य अकेले कलहंस का जाना उचित नहीं है, इसलिए वहाँ यह मकरिका ही जाये।
(१) भोः! न गन्तव्यम्, अप्सर:पेटकं खल्वेतत्, न मानुषीपेटकम्।
(२) यद्यप्यहमनरगर्लवदनो ब्राह्मणः, तथाप्येतस्य कलहंसस्यैकाकिन: परमहिलानां मध्ये गमनं न समुचितम्; तदेषा मकरिका गच्छतु।
१.
ख.ग. देशो।
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