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तृतीयोऽङ्कः
आज्ञां कारितवान् प्रजापतिमपि स्वां पञ्चबाणस्ततः
कामार्त्तः क्व जनो व्रजेत् परहिताः पण्याङ्गनाः स्युर्न चेत् ।। १३ ।
पुनः कामसर्वस्वगर्भम् । यदि वा
शृङ्गारसौरभरहस्यजुषां विधातुं पण्याङ्गनाः समुचितं किमु नेत्रपात्रम् ?
कुर्वन्ति याः कुसुमकार्मुकजीवितस्य
शर्म श्रियो रतिभुवः किल मूल्यमात्रम् । । १४ ॥ कलहंसः - एवमेतत् ।
(विचारकर) हे कलहंस ! मृगनयनी रमणियों का सभी के घर में होना सम्भव नहीं (और) दूसरे की स्त्री का हरण करने वाले जन को न्यायप्रिय राजा दण्ड भी देता है, तब जो कामदेव प्रजापति (ब्रह्मा) से भी अपनी इच्छानुसार (कार्य) करवाता है उस कामदेव के प्रभाव से काम से पीड़ित जन (अपनी वासना निवृत्ति के लिए) यदि दूसरे के स्वार्थ को सिद्ध करने वाली पण्याङ्गनाओं ( वेश्याओं) के पास न जाँय, तो कहा जाँय ? ।। १३ ।।
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पुनः काम सभी का मूल है। अथवा
शृङ्गाररस की सुगन्धि के रहस्य से युक्त पुरुषों के नेत्र द्वारा सम्यक् प्रकार से देखे जाने योग्य क्या पण्याङ्गनायें नहीं हैं? अर्थात् हैं ही, जो पण्याङ्गनायें कामदेव के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली रतिविषयक उत्कण्ठा को धनमात्र से निश्चय ही शान्त करती हैं ।। १४ ।।
कलहंस- ऐसा ही है।
जिस विट के द्वारा मनरूपी आँखों से देखने वाली व्यवहार से ही (जो) कुलातनायें निश्चित ही लज्जित हो जाती हैं ऐसी अङ्गनाएँ जिस देश की वेश्या हैं, तो क्या उनकी अभिलाषा करनी चाहिए ? ।। १५ ।।
टिप्पणी- पण्याङ्गना- इसका अर्थ है पैसे से बिकने वाली रमणियाँ अर्थात्, ऐसी रमणियाँ जो धन लेकर उसके बदले दूसरे की काम वासना की निवृत्ति करती हैं, उन्हें 'पण्याङ्गना' कहा जाता है।
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