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________________ ७६ नलविलासे राजा- अलमलमतिविस्तरेण। जानीहि कुतस्त्योऽयं पञ्चमोद्गारसारः समुच्छलति गीतामृतासारः? कलहंसः- (किञ्चित् परिक्रम्य पश्यति) देव! दवीयसि काननोद्देशे बहलपल्लवाविलानेकतिलकचम्पकप्रभृतितरुतिरोहितं देवताऽऽयतनम्। राजा- न केवलं देवतायतनं पण्याङ्गनाचक्रं च सङ्गीतकमादधानमवलोकयामि। (सर्वे निपुणमवलोकयन्ति) कलहंस! पश्य पश्य। प्रेक्षाविघट्टनरुषा कलहायमानदोवल्लिकङ्कणरणत्कृतिपीतगीतम्। 'नृत्यं कुरङ्गकदृशां विलसद्विलास मुल्लासयेत् स्मरमते दृषदोऽपि रन्तुम्।।१२।। (विमृश्य) कलहंस! सर्वेषामपि सन्ति वेश्मसु कुतः कान्ताः कुरङ्गीदृशो न्यायार्थी परदारविप्लवकरं राजा जनं बाधते। राजा- अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं। इसका पता लगाओ कि पञ्चमस्वर के तत्त्व से परिपूर्ण संगीत की अमृतरूपी वर्षा कहाँ से हो रही है। ___ कलहंस- (कुछ भ्रमण करके देखता है, पश्चात्) हे महाराज! दूरवर्ती जंगल के एक भाग में बहुत अधिक पल्लवों के कारण अस्पष्ट अनेक प्रकार के तिलक, चम्पक प्रभृति वृक्षों से आच्छादित देवस्थल है। राजा- केवल देवस्थल को ही नहीं अपितु गीत गाती हुई पण्याङ्गनाओं का समूह भी देख रहा हूँ। (सभी अच्छी तरह से देखते हैं) हे कलहंस! देखो, देखो। (नृत्य के समय) गति के कारण (उत्पन्न) घर्षण से क्रोधित, हिलती हुई भुजलताओं में पहनी गई कंकण की खन-खन की ध्वनि से उत्पन्न गीत का पान कर चुके, शृङ्गारक्रीड़ा से शोभायमान मृगनयनियों का नृत्य पत्थर को भी कामक्रीड़ा में रमण करने के लिए उत्सुक कर रहा है।।१२।। टिप्पणी- पश्य पश्य- शीघ्रता (घबराहट) में किसी क्रिया का दो बार कथन होता है___ 'सम्भ्रमे द्विरुक्तिः। १. क. नृत्तं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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