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________________ कलहंस! अजल्प्यं जल्पामः किमपि किल पाषाणसुहृदां सदा तेषां भूयाज्जगति पुरुषाणामजननिः । असारं संसारं विदधति न सारं प्रतिमुहुः पिबन्तो ये सूक्तीरथ च कलगीतीर्मधुमुचः । । ९ । । अपि च तृतीयोऽङ्कः न गीतशास्त्रमर्मज्ञा न तत्त्वज्ञाश्च ये किल । अपौरपशुदेश्येभ्यस्तेभ्यः पुम्भ्यो नमो नमः । । १० ।। कलहंसः - देव! आस्तां मर्मपरिज्ञानं येषां गीतस्पृहाऽपि न । कुरङ्गेभ्योऽपि हीनेषु मर्त्यत्वं तेषु वैशसम् । । ११ । हे कलहंस ! हम कुछ अकथनीय बात कह रहे हैं (वह यह कि ) उन पाषाण तुल्य नीरस पुरुषों का संसार में जन्म न हो जो मधुरस बहाने वाली मधुर गीतियों को और सूक्तियों का पान करते हुए भी बार-बार इस संसार को असार कहते हैं, सारवान् नहीं । । ९॥ और भी जो न तो संगीतशास्त्र को जानने वाले हैं और न उसके मर्म (तत्त्व) को ही समझने वाले हैं ऐसे, गाँवों में रहने वाले पशुतुल्य पुरुषों को ( मैं राजा नल) हमेशाहमेशा नमस्कार करता हूँ ।। १० ।। कलहंस - हे महाराज ! जिनको गीत तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान तो दूर रहा संगीत में स्पृहा ही नहीं है (ऐसे ) मृगों से भी हीन मनुष्य का मनुष्यत्व भी निष्फल (ही) है ।। ११ । । टिप्पणी- सूक्ति- सु = सुष्ठु + उक्ति सुन्दर वचनावली Jain Education International - ७५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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