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नलविलासे राजा- (कर्ण दत्त्वा स्वगतम्) कथमनक्षरगीतध्वनिः? (प्रकाशम्) कलहंस! शृणोषि किमपि?
विदूषकः- (१) चीरीयाणं महुरं रसिदं सुणेमि। राजा- धिग् मूर्ख! नन्वेष
उत्कर्णयन् वनविहारिकुरङ्गयूथान्याश्लेषयन् विरहकान् कलिकाकलापैः। सम्पूर्णपञ्चमकलासुभगम्भविष्णुः
कर्णी विनिद्रयति मुद्रितगीतनादः।।८।। कलहंसः- यथाऽऽदिशति देवः।
राजा- अहह! सहृदयहृदयापहारिहारितम् (मा) अशेषविषयशेखरो गीतनादः।
राजा- (कान लगाकर अपने मन में) यह अस्पष्ट संगीतध्वनि कहाँ से? (प्रकट में) हे कलहंस! क्या कुछ सुन रहे हो?
विदूषक- झीङ्गुर की मधुर ध्वनि सुन रहा हूँ। राजा- अरे मूर्ख! यह तो
वन में विहार करने वाले मृग झुण्डों के कानों को ऊपर उठाने वाली अर्थात्, श्रवण के लिए उत्कण्ठित करने वाली, कोयलों की मधुर कू-कू की ध्वनि से विरहीजन को उत्कण्ठित करने वाली, पञ्चमस्वर को पूर्णता प्रदान करने वाली गीत ध्वनि हो रही है, जो गीत ध्वनि श्रवणेन्द्रियों को खोल रही है, अर्थात् गीत श्रवण के लिए श्रवणेन्द्रिय उधर संलग्न हो रही है।।८।।
कलहंस- महाराज की जैसी आज्ञा।
राजा- वाह! सहृदयजनों के हृदय को आकृष्ट करने वाली यह सभी रूपादि विषयों में मूर्धन्य सर्वोत्तम गीत ध्वनि है।
(१) चीरीकाणां मधुरं रसितं शृणोमि।
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