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तृतीयोऽङ्कः
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राजा - (तथा कृत्वा) कलहंस ! पश्य सहकारशाखासनीडे नीडे । प्रियतमावदनेन्दुविलोकितैरसुहितः कलकण्ठयुवा नवः । प्रतिमुहुः प्रतिगत्य नभस्तलाद् वलति याति वलत्यथ यात्यथ । । ५ । ।
अपि च
उत्तंसकौतुकनवक्षतदक्षिणाशा
शाखाग्रपल्लवलवा सहकारवीथी । सेयं समादिशति नः स्फुटमङ्गनानां सद्यः सलीलगतमश्चितयौवनानाम् । । ६ । ।
कलहंस:
स्विद्यन्नितम्ब भरपूरनिमग्नपाणिभागातिनिम्नपदपद्धतिबन्धुराङ्गी ।
स्त्रीणां न केवलमसौ सहकारवीथी
यातं दिशत्यवनिरप्यवनीशचन्द्र ! ।। ७ ।।
कर शीतलता प्रदान करने वाली तेज वायु से आलिङ्गित इसके समीप हरी घास युक्त स्थान है अत: महाराज इस वृक्ष के समीप बैठें।
राजा - (वैसा ही करके) हे कलहंस ! आम्र वृक्ष की शाखा के निकटस्थ विश्रामस्थल को देखो |
प्रियतमा के चन्द्रमारूपी मुख को देखने में अतृप्त नवीन युवा पिक आकाशतल से जाकर बार-बार आता है जाता है, फिर लौटकर आता है और फिर जाता है। । ५ । ।
और भी,
(कर्ण) आभूषण ( धारण करने) के कुतूहल के कारण तत्काल तोड़े गये दक्षिण दिशा की डालियों के पल्लवाङ्कुरों वाली यह आम्रवृक्ष की पंक्ति लीलापूर्वक गमन की गई यौवन से आलिङ्गित अङ्गनाओं के मार्ग की हमें स्पष्ट सूचना (भी) दे रही है ॥ ६ ॥
कलहंस - हे पृथ्वीनाथ ! नितम्बभार के कारण पीछे के भाग के अधिक दब जाने से पसीने से तर छोटे-छोटे कदमों के निक्षेप से सुन्दर गात्रों वाली स्त्रियों के गमन मार्ग को केवल यह आम्रवृक्ष की पंक्ति ही नहीं, अपितु यह पृथ्वी भी उसके जाने को कह रही है । । ७ ॥
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