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________________ नलविलासे मकरिका- (स्मित्वा) (१) न परं गद्दहमुहं, मक्कडकन्नं वंकपायं च। विदूषकः- (२) हला मुहरे! सुमरेसि 'एदं भणिदं? राजा- (स्वगतम्) आमन्त्रिता वयमतः प्रमदः परेऽपि सन्त्यागताः क्षितिभुजोऽथ विषादतापः। अङ्ग विधानमिव सन्धिषु रूपकाणां तुल्यं स्वयंवरविधिः सुख-दुःखहेतुः।।४।। कलहंस:- अयं तरुणतरणिकिरणकरणिधारिचारुप्रवालपटलपुलकितानेकशाखाप्रतानविनिवारितातपप्रचारः सहकारस्तदास्यतामस्यालवाल-वारिशीकरासारोपगूढ-प्ररूढहरितोपजातपर भागे मूलभागे देवेन। - मकरिका- (हँसकर) केवल गर्दभमुख ही नहीं अपितु बन्दर की कान वाला तथा टेढ़े पैरों वाला भी कहती है। विदूषक- अरी वाचाल! क्या इस कथन का स्मरण कर रही है? राजा- (अपने मन में) हम आमन्त्रित हैं इसलिए प्रसन्न हैं, किन्तु अन्य राजा भी आये हुए हैं यह विषाद का कारण है। (वस्तुतः) रूपकों में सुख और दुःख उत्पन्न करने के लिए जैसे मुखादि पञ्च सन्धियों के अङ्गों का विन्यास किया जाता है उसी प्रकार यह स्वयंवर अनुष्ठान सुख और दुःख दोनों का कारण है।।४।। कलहंस- मध्याह्नकालिक सर्य-किरणों के ताप के प्रभाव को रोकने वाला, धारण किये हुए सुन्दर नवीन पल्लवों से आच्छादित अतएव रोमाञ्चित फैले हुए अनेक शाखाओं वाला यह आम का वृक्ष है जिसके आलवाल (थाला) में जल बूंदों को ग्रहण (१) न परं गर्दभमुखम्, मर्कटकर्णं वक्रपादं च। (२) अरे मुखरे! स्मरसि एतद् भणितम्? १. क. एवं। २. ख.ग. परभागे दे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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