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________________ ७१ तृतीयोऽङ्कः (दिशोऽवलोक्य) अभिनभः प्रसृतैर्नवमल्लिकाकुसुमपुञ्जरजोभिरयं मधुः। यवनिकां विदधाति वियोगिनांशशिकरव्यतिषङ्गनिवृत्तये।।३।। कलहंस! विदितवृत्तान्तः स भवान् विदर्भाणाम्। तद् विलोकय किमप्यतिरमणीयमत्र कुसुमाकरोद्यानेऽस्माकमावासस्थानम्। कलहंसः- यदादिशति देवः। विदूषकः- (१) ही ही! पडिपुन्ना मे बंभणीए मणोरधा। सत्यिवायणगं पि किं पि दाणं मे रायदुहिया पडिवादयस्सदि। अधवा न सत्यिवायणं करिस्सं, सा में गद्दहमुहं भणदि। भोदी मयरिए! णं पुच्छामि, सव्वकज्जे वि विदब्मपुत्ती मं गद्दहमुहं वाहरदि? (दिशाओं में देखकर) आकाश में फैले हुए नवीन मल्लिका पुष्प समूह के परागरूपी धूलि के द्वारा यह वसन्त ऋतु वियोगियों के लिए चन्द्रमा की किरणों के सम्पर्क को रोकने हेत् आकाश में पर्दे का रूप धारण कर रहा है।।३।। हे कलहंस! तुम विदर्भदेश के वृत्तान्त से भलीभाँति परिचित हो, इसलिए देखो कि पुष्पसमूह वाले इस उद्यान में हम लोगों के ठहरने योग्य कोई रमणीय स्थान है। कलहंस- महाराज की जैसी आज्ञा। विदूषक- अहह! मेरी ब्राह्मणी(पत्नी) का मनोरथ पूर्ण हो गया। मांगलिक गान करने के कारण भीमनरेश की पुत्री दमयन्ती निश्चित ही कुछ न कुछ दान के रूप में मुझे देगी ही अथवा मैं मांगलिक गान नहीं करूँगा, क्योंकि उसने मुझे गर्दभमुख कहा है। हे मकरिके! मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या वह दमयन्ती मुझे हमेशा गर्दभमुख ही कहती है। (१) अहो अहो! प्रतिपूर्णा मे ब्राह्मण्या मनोरथाः। स्वस्तिवाचनकमपि किमपि दानं मे राजदुहिता प्रतिपादयिष्यति। अथवा न स्वस्तिवाचनं करिष्ये, मां गर्दभमुखं भणति। भवति मकरिके! त्वां पृच्छामि-सर्वकार्येऽपि विदर्भपुत्री मां गर्दभमुखं व्याहरति? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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