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नलविलासे
कुरङ्गक: - (प्रणम्य) देव! कापालिकघोरघोणः ।
राजा - (स्वगतम्) लम्बोदरोपजनितवासनेन युवराजकूबरेण समाहूतः । भवतु (प्रकाशम्) भो भोः सैन्याः ! बहिः स्थातव्यं बहिः स्थातव्यम् । न खलु सहकारनिकराभिरामः सोढुमलमयमारामश्चक्रावमर्दम् ।
कुरङ्गक: - (मुकुलं प्रति) एहि स्वस्थानं व्रजामः ।
( इति प्रणम्य निष्क्रान्तौ)
राजा - अहो! वसन्तावतारव्यतिषङ्गरङ्गत्परिभोगमखिलं जगत् । परिमलभृतो वाताः शाखा नवाङ्कुरकोटयो मधुकररुतोत्कण्ठाभाजः प्रियाः पिकपक्षिणाम् । विरलविरलस्वेदोद्वारा वधूवदनेन्दवः
प्रसरति मधौ धात्र्यां जातो न कस्य गुणोदयः ? । ।
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कुरङ्गक- (प्रणाम करके) देव! कापालिक घोरघोण ।
बाहर
राजा - (अपने मन में) कापालिक लम्बोदर कारागार रूपी आवास से युवराज कूबर के द्वारा बुलाया गया। अच्छा (प्रकट में) अरे सैनिको! बाहर ही रुको, ही रुको। (क्योंकि) आम वृक्ष के झुण्डों से सुन्दर यह उद्यान तुम लोगों द्वारा बर्बाद करने के योग्य नहीं है ।
कुरङ्गक- (मुकुल के प्रति) आओ, हम अपने स्थान को चलें ।
( ऐसा कहकर प्रणाम करके रङ्गमञ्च पर से दोनों चले जाते हैं)
राजा - ओह! वसन्तऋतु के सम्पर्क से यह सम्पूर्ण जगत् भोगमय हो गया
सुगन्ध को धारण करने वाला वायु, शाखाओं के नवीन पल्लव समूह, भौरों की गुञ्जन ध्वनि और कोयल पक्षी की प्रियाओं की कू-कू ध्वनि, प्रिय के लिए उत्कण्ठित अङ्गनाओं के चन्द्रमारूपी मुख पर कुछ-कुछ स्वेदबिन्दुओं को बहाने वाले वसन्त ऋतु के इस पृथ्वी पर विस्तार हो जाने से ऐसा कौन सा गुण है, जो उत्पन्न नहीं हो जाता है ? अर्थात् सभी प्रकार के गुण उत्पन्न हो जाते हैं ? ।। २ ।।
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