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तृतीयोऽङ्कः कुरङ्गकः- ततो धर्मकर्मविप्लवमवधार्य छिन्नकोष्ठनासिकया लम्बस्तनिकया सह गर्दभमारोप्य देवेन घोरघोणो निर्विषयः कृतः।
मुकुल:-(साश्चर्यम्) पश्य मलिनकर्माऽपि कियती प्रतिष्ठामधिरोपितो देवेनायं घोरघोणः। कुरङ्गकः- विस्मयनीयं नैवैतत्।
आस्तां क्षयं किमिह पातकिनो न यान्ति यान्ति श्रियं समधिकां किमु धार्मिकेभ्यः। तेनासमञ्जसमसौ रचयन् विशको
लोकश्चिरं मनसि वाचि तनौ च हृष्येत्।।१।। मुकुल:- साम्प्रतं क्वासौ? कुरङ्गकः- साम्प्रतमसौ निषधामधिवसतीति श्रूयते।
(नेपथ्ये) भोः! कः साम्प्रतं निषधामधिवसति?
कुरङ्गक- उसके बाद, धार्मिक अनुष्ठान में विघ्न (हो सकता है ऐसा) मानकर महाराज ने कान, होंठ तथा नाक काटकर लम्बस्तनी के साथ उस (घोरघोण) को गधे पर बैठाकर विदर्भभूमि से निर्वासित कर दिया।
मुकुल- (आश्चर्य के साथ) देखो, दुष्टकर्म करने वाले उस घोरघोण को महाराज ने कितनी (अधिक) प्रतिष्ठा दे दी।
कुरङ्गक- इसमें आश्चर्य की क्या बात है।
ठीक है, (परन्तु) क्या दुष्प्रवृत्ति वाले दुरात्मा जन पतन को प्राप्त नहीं करते हैं अर्थात् करते ही हैं। और क्या धार्मिक कार्यों को करने वाले पुरुषों से अधिक शोभा (प्रतिष्ठा) को प्राप्त करते हैं? इसी प्रकार वे दोनों दुष्ट बोधगम्य न होने वाले आचरण की स्थिति को उत्पन्न करते हुए इस जगत् में चिरकाल तक लोगों के मन, वाणी और शरीर का हरण करते रहे।।१।।
मुकुल- इस समय वह कहाँ है? कुराक- ऐसा सुना जा रहा है कि इस समय वह निषधदेश में रह रहा है।
(नेपथ्य में) अरे! कौन इस समय निषधदेश में रह रहा है?
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