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________________ भूमिका का वर्णन शृङ्गार रस के विरुद्ध है। नाटककार उसकी योजना चरित्र चित्रण अथवा रस के अनकल करे या मूलवृत्त के उस अंश को छोड़ ही दे। जैसे- इसी 'नलविलास' में धीरोदात्त नायक के लिए बिना दोष के सहधर्मिणी का परित्याग अनुचित है। इसलिए कापालिक के प्रयोग के कारण नल ने दमयन्ती का परित्याग किया है। मायुराज ने 'उदात्तराघव' में राम के छल से बालि-बध की घटना को छोड़ दिया। भवभूति ने 'महावीरचरित' में इस घटना को इस प्रकार परिवर्तित कर दिया कि सुग्रीव से मित्रता के कारण जब बालि राम के वध के लिए आता है, तब राम उसे मारते हैं। अलंकारादि का भी समुचित प्रयोग ही करना चाहिए। अलंकारादि के वर्णन द्वारा प्रधान रस को तिरोहित नहीं करना चाहिए। इससे प्रधान रस का उच्छेद हो जायेगा जो रसास्वाद में बाधक है। पहले कहा जा चुका है कि शृङ्गार और बीभत्स में नैरन्तर्यनिमित्त विरोध है। एक काल में शृङ्गार और बीभत्स परस्पर विरोधी हैं। अत: किसी अन्य रस के व्यवधान से ही इनके विरोध का परिहार किया जाता है---- रसान्तरेणान्तरितो नैरन्तर्येण यो रसः। काव्यप्रकाश, ७/६४। नाटक का विभाजन अङ्कों में होना चाहिए अङ्क पाँच से दश तक ही हों, अधिक होने पर वे महानाटक होंगे। जैसे- हनुमानाटक। इसके अतिरिक्त इतिवृत्त की सुशृङ्खलता के लिए प्रवेशक और विष्कम्भक की योजना करनी चाहिए। युद्ध-राज्यभ्रंश, मरण, नगरोपरोध आदि का वर्णन केवल सूच्य होने से प्रवेशकादि के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहिए। प्रधान नायक का वध प्रवेशकादि के माध्यम से भी कभी प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। फल की इच्छा से प्रधान नायक का युद्ध से पलायन, सन्धि आदि नाटक में प्रदर्श्य हैं 'बन्धः पलायनं सन्धिः योज्यो वा फललिप्सया।। नाट्यदर्पण, १/२१। अङ्कों में अधिक पात्रों का भी वर्णन वर्जित है। जैसे- सेतुबन्ध आदि में। नाटकीय घटनाओं की समाप्ति गोपुच्छाग्र की भाँति होनी चाहिए। नाटक की भाषा सरल, सुबोध अर्थात् मृदुललित पदाढ्य, गूढशब्दार्थ से रहित और जनपद सुखबोध्य होनी चाहिए। जैसे- कमण्डलधारी सन्यासियों से घिरी वेश्या अशोभनीय होती उसी प्रकार क्लिष्ट भाषायुक्त नाटक अशोभन मालूम पड़ता है 'तदेवं लोकभावानां प्रसमीक्ष्य बलाबलम । मृदुशब्दं सुखार्थं च कविः कुर्यात्तु नाटकम् ।। चेत्क्रीडिताद्यैः शब्दैस्तु काव्यबन्धा भवन्ति ये। वेश्या इव न शोभन्ते कमण्डलुधरैर्द्विजैः ।। नाट्यशास्त्र, २१/१३१-३२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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