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________________ नलविलासे धर्मस्वरूप कुछ कार्य विधिरूप होते हैं, जिनका हमें पालन करना होता है, दुसरे कार्य निषेध रूप होते हैं जिनका आचरण करना निषिद्ध होता है। नाटक में विधिरूप कार्यों का प्रतिपादन होता है। जैसे- सत्य, दया त्याग, परोपकार आदि का आचरण। जो निषेधपरक कार्य है-- जैसे--- सब व्यापारों से उपरति आदि इनको नाटक का प्रतिपाद्य विषय नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि इनका फल लोक में साक्षात् नहीं देखा जाता है। इसलिए जिन कार्यों के प्रदर्शन से सामाजिक को साक्षात् फल का दर्शन न हो उस प्रकार के कार्य नाटक में ग्राह्य नहीं हैं। नाटक के विधि-निषेध के प्रसंग में भरत मुनि ने नाटक के नायक के विषय में कहा है.- नाटक में नायक राजर्षि हो और उसके उच्च वंश का चरित वर्णित हो। राजर्षि शब्द पर विचार करते हुए अभिनवगुप्त ने प्रतिपादित किया है कि नाटक का नायक जीवित राजर्षि नहीं हो सकता। अभिनवभारती में उद्धृत एक अज्ञात आचार्य के मत में चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार आदि समसामयिक राजा नायक हो सकते हैं। अभिनवगुप्त के अनुसार मर्त्यचरित की प्रधानता नाटक में रहती है, परन्तु देवचरित का भी वर्णन किया जा सकता है। भरत मुनि का दिव्यपात्र से अभिप्राय है ब्रह्मा, विष्णु, शङ्कर, इन्द्र, वरुण और कामदेव आदि देवता (नाट्यशास, १८/१०-१६, पर अभिनवभारती)। धनञ्जय ने नाटक में दिव्यपात्र का भी नायक होना स्वीकार किया है। परन्तु नाटक में दिव्यपात्र का प्रधान नायक होना उचित नहीं। नाटक का प्रधान उद्देश्य है यह उपदेश देना कि राम के समान आचरण करना चाहिए रावण के समान नहीं। अभिनवगुप्त के अनुसार दिव्यपात्र को नायक मानने में यह कठिनाई होगी कि मर्त्यचरित न होने के कारण उन सुख-दु:खात्मक संवेदनाओं का सामाजिक में प्रतिफलन नहीं होगा। दिव्यपात्रों में दुःख का अभाव होता है। अत: दिव्यपात्र को नायक स्वीकार करने से नाट्य में दुःख दूर करने के लिए प्रतिकार भी नहीं होगा। दिव्यपात्र तो अलौकिक-शक्ति-सम्पन्न होते हैं। अलौकिक-शक्ति-सम्पन्न होने के कारण देवताओं को दुष्प्राप्य वस्तुओं की प्राप्ति इच्छा मात्र से हो जाती है। उनके चरित के अनुसार आचरण सम्भव न होने से वह मनुष्यों के लिए उपदेश योग्य नहीं हो सकता। अत: नाटक का नायक दिव्य नहीं, मर्त्य होता है। नाटक में ऐसे इतिवृत्त का विधान नहीं करना चाहिए जो प्रधान नायक के चरित का और रस का अकर्षक हो। यदि वह वस्तुतः यथार्थ हो तो भी उसकी अन्यथा रूप से कल्पना कर लेनी चाहिए। (द्रष्टव्यः दशरूपक, ३/२४-२५, नाट्यदर्पण, १/१८)। यथा धीरललित नायक का परस्त्री-सम्भोग अनुचित है और उसमें धीरोद्धतत्व के गुण-स्वभाव का वर्णन विरुद्ध है। अत: दोनों परित्याज्य हैं। इसी प्रकार प्रत्यक्ष बोध्य आलिङ्गन, चुम्बन शृङ्गार रस के लिए उचित नहीं है। तथा बीभत्स रस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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