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________________ द्वितीयोऽङ्कः अपि च देवस्य निषधस्यामि सन्ततिर्दुष्प्रकृतिर्भवतीति श्रद्धाल'वोऽपि न प्रतिपद्यन्ते, किमङ्ग! हृदयालवः? कलहंस:- (सरोषम्) प्रतिहततमोऽयं वितर्कः। भजन्ते कार्याणि प्रकृतिविभवं कारणगतं प्रवादो लोकानां ध्रुवमयमनेकान्तकलुषः। मृदुत्वं तत् किञ्चिज्जलदपयसां विश्वविदितं स कश्चिन्मुक्तानामथ च किल काठिन्यनिकषः ।।२२।। राजा- किमपरमुच्यते? करने पर भी पत्थर कोमल नहीं हो जाता है और न तो जल पत्थर की कठोरता को ही छूता है। (अर्थात् जल पत्थर के समान कठोर नहीं हो जाता है)।।२१।। और भी, महाराज नल की सन्तति (सन्तान) दुष्प्रकृति की होगी ऐसा तो निष्ठावान् (विश्वास करने वाले) भी नहीं प्रतिपादित करते (अर्थात् कहते) हैं (तो फिर) हे राजन्! कोमलहृदय वालों (अच्छे दिल वालों) की बात ही क्या है। कलहंस- (क्रोध के साथ) यह तर्क बिल्कुल व्यर्थ है। कार्य कारण में रहने वाले स्वाभाविक (नैसर्गिक) गुणों को प्राप्त करता है यह किंवदन्ती लोक में निश्चय ही किसी भी दोष से रहित है। उसके बाद, जगत्प्रसिद्ध है (कि) मेघ से गिरने वाले जल में भी कोमलता रहती है तथा कोई मुक्तामणि निश्चित रूप से कठोर होता है (क्योंकि उसकी) कठोरता ही उसकी कसौटी है।।२२।। राजा- क्या इसमें भी सन्देह है? १ क..लवो ना टिप्पणी- 'श्रद्धालव:'-- श्रद्धा + आलुच् + प्रथमाविभक्ति, बहुवचन। 'हृदयालव:'__ हृदय + आलुच् + प्रथमाविभक्ति, बहुवचन। टिप्पणी- "कारणगतम्'-- वस्तुतः कार्य कारण के गुणों को प्राप्त करता है। यही कारण है कि कमलिनी के नाल के अग्रभाग को खाने वाला हंस अन्न के अनुरूप शरीर के रूप की समृद्धि अर्थात् स्वर्णशरीर को प्राप्त करता है। "अनानुरूपां तनुरूपऋद्धिं कार्य निदानाद्धि गुणानधीते"। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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