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नलविलासे
दुष्टसङ्गः कुमारस्य सोऽयं तेजः क्षयावहः । मार्तण्डमण्डलस्येव सैंहिकेयसमागमः ।। २० ।
कलहंस:- दुरात्मनः कापालिकस्य संसर्गाद् दुष्प्रकृतिरपि काऽपि कुमारस्य सम्भाव्यते ।
किम्पुरुषः- प्रतिहतोऽयं वितर्कः । यतः
शुभा वा लोकस्य प्रकृतिरशुभा वा सहभवा
परेषां संसर्गान्न खलु गुण-दोषौ प्रभवतः ।
अपां पत्युर्मध्ये सततमधिवासेऽपि मृदुतां
न यान्ति प्रावाणः स्पृशति न च पाथः परुषताम् । । २१ । ।
राहु के समागम (सम्पर्क) से सूर्य का बिम्ब (जैसे) क्षीण तेज वाला हो जाता है, उसी तरह उस दुष्ट लम्बोदर के संसर्ग से यह कुमार भी क्षीण तेज वाला हो जायेगा ।।२०।।
कलहंस- दुरात्मा कापालिक के संसर्ग से कुमार भी दुष्प्रकृति का हो जायेगा इसकी कोई सम्भावना ही करते हैं।
किम्पुरुष- यह तर्क व्यर्थ है। क्योंकि
लोक (जगत्) की नैसर्गिक स्थिति (चाहे ) शुभ ( फल देने वाली) हो अथवा अशुभ फल देने वाली) हो या सहज ( सरल, स्वाभाविक) हो, (परन्तु) दूसरे के संयोग (सम्पर्क) से गुण और दोष प्रभावित नहीं होता है। समुद्र के बीच में निरन्तर वास टिप्पणी- 'सैंहिकेय' "तमस्तु राहुः स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुंतुदः" इत्यमरः । राहु एक राक्षस का नाम था । विप्रचित्त और सिंहिका का पुत्र होने के कारण इसे सैंहिकेय भी कहा जाता है। जब समुद्रमंथन के परिणामस्वरूप समुद्र से निकला अमृत देवताओं को परोसा जाने लगा तो राहु ने वेश बदलकर उनके साथ स्वयं भी अमृत पीना चाहा। परन्तु सूर्य और चन्द्रमा को इस षड्यन्त्र का पता लगा, तो उन्होंने विष्णु को इस चालाकी का ज्ञान कराया। फलतः विष्णु ने राहु का सिर काट डाला, चूँकि थोड़ा सा अमृत वह चख चुका था, तो उसका सिर अमर हो गया। परन्तु कहते हैं कि पूर्णिमा या अमावस्या को वे दोनों चन्द्र और सूर्य को अब भी सताते रहते हैं। ज्योतिष में राहु भी केतु की भाँति समझा जाता है, यह आठवाँ ग्रह है, या चन्द्रमा का आरोही शिरबिन्दु है।
टिप्पणी- 'पाथः ' - "पाथोऽर्केऽग्नौ जले" इदि मेदिनी ।
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