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द्वितीयोऽङ्कः
(प्रविश्य) पुरुषः एषोऽस्मि। राजा- अये कोरक! एतस्याः सर्वाङ्गीणं कनकाभरणं प्रयच्छ। कोरक:- आदेशः प्रमाणम् (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) राजा- लम्बस्तनि! त्वमपि स्वदेशे विजयस्व।
लम्बस्तनी- (१) सत्थि महारायस्स। (इत्यभिधाय कटितटीं नर्तयन्ती निष्क्रान्ता)
राजा- (स्मृतिमभिनीय) अमात्य! लम्बोदरः कापालिकः कथं वर्तते?
किम्पुरुषः- देव! लम्बोदरो युवराजकूबरेण क्रीडापात्रं कर्तुं नीतोऽस्ति।
राजा'- एवम् (विमृश्य)
।
(प्रवेशकर) पुरुष- यह मैं हूँ। राजा- हे कोरक! इसके समस्त अङ्गों के लिए स्वर्णालंकार दो। कोरक- आदेश शिरोधार्य है (यह कहकर चला जाता है)। राजा- लम्बस्तनि! तुम भी अपने देश को प्रस्थान करो।
लम्बस्तनी- महाराज का कल्याण हो। (यह कहकर कमर को नचाती हुई निकल जाती है)
राजा- (स्मृति का अभिनयकर) अमात्य! लम्बोदर नामक कापालिक कहाँ है?
किम्पुरुष- हे राजन्! लम्बोदर युवराज नलकूबर द्वारा क्रीड़ा के योग्य व्यक्ति बनाने के लिए ले जाया गया है।
राजा- तो यह बात है (विचार कर)
(१) स्वस्ति महाराजाय
१ क. राजा वि.
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