________________
६२
नलविलासे राजा- (सविचिकित्सम्) अदृश्यमुखेयं तर्हि।
विदूषकः- (४) भोदी! एगं दाव मे संसयं भंजेहि। मह बंभणीए माया धूलकुट्टिणी जा पाडलिपुत्ते वसदि, सा किं तुमं आदु अन्ना का वि? ___राजा- (सरोषम्) अयि मुखरब्राह्मण! नाद्यापि परिहासाद् विरमसि। (पुनर्लम्बस्तनी प्रति) भविष्यति नः किमपि भवदर्शनफलम्? लम्बस्तनी- (१) अवस्सं भविस्सदि।
राजा- (अपवार्य) तर्हि विदर्भजां सम्पादय। लम्बस्तनी- (२) इत्थ को वि किं संदेहो? एसा संपाडेमि। राजा- (सहर्षम्) कोऽत्र भो भाण्डागारिषु?
राजा- (घृणा के साथ) तो इसका मुख देखने योग्य नहीं है।
विदूषक- देवि! हमारे एक सन्देह को आप दूर करें। मेरी ब्राह्मणी (पत्नी) की माता (जिसका नाम स्थूलकुट्टिनी है) जो पाटलिपुत्र (पटना) में रहती हैं, क्या आप वही हैं अथवा कोई और।
राजा- (क्रोधपूर्वक) अरे वाचालब्राह्मण! अब भी हास-परिहास से विरत नहीं हो रहे हो। (पुन: लम्बस्तनी से) आपके दर्शन का कोई फल हमको (प्राप्त) होगा?
लम्बस्तनी- अवश्य होगा। राजा- (अपवारित में) तो दमयन्ती को यहाँ लाओ। लम्बस्तनी- तो इसमें भी क्या कोई सन्देह है? उसे अभी लाती हूँ। राजा- (हर्ष के साथ) अरे यहाँ भाण्डारगृह में कौन है?
(१) भगवति! एकं तावन्मे संशयं भक्ष्व। मम ब्राह्मण्या माता स्थूलकुट्टिनी या पाटलिपुत्रे वसति, सा किं त्वमथवाऽन्या काऽपि?
(२) अवश्यं भविष्यति। (३) अत्र कोऽपि किं सन्देहः? एषा सम्पादयामि।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org