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द्वितीयोऽङ्कः लम्बस्तनी- (कटितटं करतलेनाहत्य, मुखं वक्रीकृत्य)(१) नाहमीदिसाणं गद्दहमुहाणं उत्तरं देमि।
राजा- (विहस्य) महाप्रभावा श्रूयते भवती। तदावेदय किमपि।
लम्बस्तनी- (सगर्वम्) (२) भो महाराय! अपुत्ताणं पुत्तं देमि, अणायारसंजादे' गम्भे पाडेमि, दुल्लहं पि पिअजणं संपा'डेमि। किं बहुणा? जं तिहुयणे वि असज्झं तं साहेमि।
राजा-(अपवार्य कलहंसं प्रति) अहो धृष्टता! अहो निर्लज्जता! विमृश, संवदति किमप्येतदुक्तम्?
कलहंस:- न किमपि, गर्भपातं पुनर्जानाति।
लम्बस्तनी- (कटि प्रदेश को हाथ से ठोककर, मुख को टेढ़ाकर) इस तरह के गर्दभमुख को मैं जबाब नहीं देती।
राजा- (हँसकर) सुना है कि आप बहुत ही प्रभावशालिनी हैं। इसलिए कुछ कहिये।
लम्बस्तनी- (गर्व के साथ) हे महाराज! नि:सन्तान को सन्तान देती हूँ। व्यभिचार से धारण किये गये गर्भ को गिराती हूँ। अत्यन्त दुर्लभ प्रियजन को मिलाती हूँ। अधिक क्या? 'लोक में जो कार्य सम्भव नहीं, उसे भी सिद्ध करती हूँ।
राजा- (अपवारित में कलहंस से) वाह रे इसकी धृष्टता! वाह रे इसकी निर्लज्जता! और इसका सोचविचार, यह तो बिल्कुल असम्बद्ध बात कह रही है?
कलहंस- कुछ नहीं, पुन: केवल गर्भ को गिराना जानती है!
(१) नाहमीदृशानां गर्दभमुखानामुत्तरं ददामि।
(२) भो महाराज! अपुत्रेभ्यः पुत्रं ददामि। अनाचारसंजातान् गर्भान् पातयामि। दुर्लभमपि प्रियजनं सम्पादयामि। किंबहुना? यत् त्रिभुवनेऽप्यसाध्यं तत् साधयामि। १. ख. ग. श्रूयते त। २. क. .संजाए। ३. क. संपडावेमि।
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