________________
६०
नलविलासे
( कलहंसः संज्ञया विदूषकं वारयति )
राजा - लम्बस्तनि! कुशलवत्यसि ?
लम्बस्तनी - ( मुखं नर्त्तयित्वा ) (१) अत्तणो जोगस्स 'पसादेण । विदूषकः - (२) भोदी! किं अइदुब्बला सि?
लम्बस्तनी - ( ३ ) मग्गपरिस्समेण ।
विदूषकः- (४) भो कलहंसा! कित्तिएहिं 'गोणेहिं मुद्दे (ट्टे) हिं (वा) एसा इथ संपत्ता?
( कलहंसो विहस्याधोमुखस्तिष्ठति)
राजा - (सभयमात्मगतम्) ध्रुवमयमेतां दुरात्मा कोपयिष्यति । भवतु (प्रकाशम्) लम्बस्तनि! अकुटिलहृदयः प्रकृतिपरिहासशीलोऽयं ब्राह्मणः । तदस्य वचोभिर्न कोपितव्यम् ।
( कलहंस संकेत से विदूषक को मना करता है)
राजा - लम्बस्तनि! कुशलवती तो हो ?
लम्बस्तनी - ( मुख को नचाती हुई ) अपनी योग साधना के फलस्वरूप । विदूषक - हे लम्बस्तनि ! अधिक दुर्बल क्यों दिख रही हो?
लम्बस्तनी - मार्गजन्य परिश्रम के कारण।
विदूषक - हे कलहंस ! कुछ बैलों के द्वारा मारकर फुलाई गई यह क्या यहीं प्राप्त हुई (मिली ) ?
( कलहंस हँसकर मुख को नीचे कर बैठ जाता है)
राजा - ( भयपूर्वक मन में) यह दुष्ट निश्चित ही इसको कुपित कर देगा। अच्छा (प्रकट में ) लम्बस्तनि ! दुष्टता से रहित हृदय वाला यह ब्राह्मण स्वभाव से हास-परिहास वाला है। इसलिए इसके वचन से आप कुपित न हों ।
Jain Education International
(१) आत्मनो योगस्य प्रसादेन । (२) भगवति ! किमतिदुर्बलाऽसि ? (३) मार्गपरिश्रमेण । (४) भो कलहंस ! कियद्भिर्गोभिर्मृतैरेषाऽत्र ।
१ क. पसाए । २ ख. गुणेहिं मुदेहिं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org